Monday 25 June 2007

बिहार की सड़कें या हेमामालिनी के गाल !

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने अपने कार्यकाल में बिहार की सड़कों की फिल्म अभिनेत्री हेमामालिनी के गालों से तुलना की थी. उन्होंने यह मानने से इनकार कर दिया था कि बिहार में सड़कों की अवस्था देश में सबसे खराब है. अब उसी बिहार की सड़कों की हालत पर फिर सवाल उठे हैं. यह अलग बात है कि मौजूदा मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने ऐसी कोई टिप्पणी नहीं करके उल्टे राज्य की सड़कों की गुणवत्ता की जाँच का जिम्मा अमेरिकी कंपनी एमएसवी इंटरनेशनल को दिया है। बिहार उन राज्यों में से एक है जहाँ का सड़क नेटवर्क देश में सबसे ज्यादा खराब है। प्रदेश के सड़क निर्माण मंत्री नंदकिशोर यादव ने समाचार एजेंसियों को बताया कि पुल और राजमार्ग निर्माण में विशेषज्ञता प्राप्त अमेरिकी कंपनी को दो साल के लिए 3.59 करोड़ रुपए का अनुबंध दिया गया है। कंपनी करीब 40 000 स्थानों पर गुणवत्ता जाँच करेगी।

गुर्जर महापंचायत की धमकी

गुर्जर समुदाय ने चेतावनी दी है कि अगर सरकार द्वारा नियत तीन महीने और तीन दिन के अंदर गुर्जर समुदाय को अनुसूचित जनजाति वर्ग के तहत आरक्षण की सिफारिश नहीं की गई तो राष्ट्रीय स्तर पर शांतिपूर्ण आंदोलन शुरू कर दिया जाएगा। अगस्त में राजस्थान के झालावाड़ व धौलपुर में पुन: गुर्जर महापंचायत होगी। महापंचायत में पास प्रस्तावों के बारे में एक बड़े गुर्जर नेता ने कहा, वसुंधरा राजे को नैतिक आधार पर पद छोड़ देना चाहिए, नहीं तो हमें पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व से बात करनी होगी और उनसे हस्तक्षेप के लिए कहना होगा। यह भी कहा गया कि हाल में गुर्जर आंदोलन के दौरान 26 लोगों की मौत के लिए राजे ही जिम्मेदार हैं। राजस्थान गुर्जर आरक्षण संयुक्त मोर्चा के बैनर तले रविवार को यहां शांतिपूर्वक संपन्न हुई राष्ट्रीय गुर्जर महापंचायत में एक स्वर से आरक्षण आंदोलन को गैर राजनीतिक आधार पर चलाने का वायदा किया गया। बैठक में कहा गया कि जब तक गुर्जर समुदाय को अनुसूचित जनजाति वर्ग के तहत आरक्षण नहीं मिल जाएगा तब तक गुर्जर समाज चुप नहीं बैठेगा। महापंचायत ने आंदोलन को गति देने के लिए कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के नेतृत्व में 15 सदस्यीय संघर्ष समिति गठित की। महापंचायत में 29 जून से चार जुलाई तक देश भर में श्रद्धांजलि सप्ताह मनाए जाने की घोषणा करते हुए कहा गया कि अगस्त में राजस्थान के झालावाड़ और धौलपुर में पुन: गुर्जर महापंचायत होगी। आंदोलन की रणनीति की घोषणा के लिए अगस्त के अंत या सितंबर के पहले सप्ताह में बैठक होगी। बैठक में एक मत से राजस्थान में आंदोलन के दौरान बेगुनाह 26 लोगों के मारे जाने के लिए प्रदेश की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को जिम्मेदार ठहराते हुए नैतिक आधार पर उनका त्यागपत्र मांगा गया। सम्मेलन में पारित प्रस्ताव में राजस्थान में हुए आंदोलन के पहले दिन पुलिस फायरिंग की घटना की न्यायिक जांच कराने और आंदोलन के दौरान मारे गए 26 लोगों की हत्या के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज करने की मांग की गई। महापंचायत में बैंसला ने राजनीतिक नेताओं को आगाह करते हुए कहा कि मेरे काम में दखल देंगे तो मैं उसे बर्दाश्त नहीं करूंगा, मुझे काम करने दो, तीन महीने तीन दिन राजस्थान सरकार के हैं और चौथा दिन गुर्जर समुदाय का है। उन्होंने कभी भी चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा करते हुए कहा कि आंदोलन के दौरान राजस्थान में पिछले दिनों मारे गए 26 बेगुनाह लोगों को श्रद्धांजलि तभी होगी जब गुर्जर लोगों को अनुसूचित जनजाति के तहत आरक्षण दिया जाएगा। कांग्रेस सांसद सचिन पायलट, अवतार सिंह भड़ाना, राजस्थान गुर्जर आरक्षण संयुक्त मोर्चा के अध्यक्ष गोविंद सिंह गुर्जर समेत अन्य वक्ताओं ने गुर्जर समाज से आपसी मतभेद भुलाने का आह्वान करते हुए आरक्षण पाने के लिए एकजुट होने की अपील की। गुर्जर नेताओं ने राजस्थान में गुर्जर आरक्षण आंदोलन के लिए मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और आंदोलन के दौरान हिंसा भड़काने के लिए राजस्थान के दो कैबिनेट मंत्री डा. किरोड़ी लाल मीणा और वीरेंद्र मीणा को जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने वसुंधरा राजे से नैतिक आधार पर तुरंत अपने पद से त्यागपत्र देने और दोनों मंत्रियों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज करने की मांग की। देशभर से आए गुर्जर प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए गुर्जर नेताओं ने समाज में मतभेद होने की बात स्वीकार की और कहा कि यदि समाज एकमत होता तो गुर्जरों को आरक्षण पहले ही मिल गया होता। कांग्रेस सांसद सचिन पायलट ने गुर्जर आरक्षण आंदोलन को गैर राजनीतिक आधार पर संचालित करते हुए आरक्षण लेने के लिए ठोस कार्यक्रम शुरू करने पर जोर दिया। कांग्रेस के एक अन्य सांसद अवतार सिंह भड़ाना ने कहा कि जब तक गुर्जर समाज एकजुट नहीं होगा और राजनीतिक हितों को छोड़कर समाज हितों के बारे में नहीं सोचेगा तब तक लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल सकेगा। महापंचायत को गोविंद सिंह गुर्जर, रमा पायलट, गुजरात के महापौर हिम्मत सिंह, गुर्जर नेता रामवीर विधूड़ी, अतर ंिसंह भड़ाना, प्रहलाद गुंजल और हिमाचल प्रदेश के मंत्री राव रंगीला राम व पथिक सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुखिया गुर्जर ने भी संबोधित किया। महापंचायत में आए प्रदेश भर के गुर्जर नेताओं ने राजस्थान में हुए आंदोलन के दौरान मारे गए 26 लोगों और घायलों के परिजनों और आरक्षण आंदोलन को चलाने के लिए करीब 70 लाख रुपये की राशि दी। गुर्जर राष्ट्रीय महापंचायत ने सर्वसम्मति से पारित हुए प्रस्ताव के तहत कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला और राजस्थान सरकार के बीच गुर्जर समुदाय को अनुसूचित जनजाति वर्ग में आरक्षण देने के मुद्दे पर हुए समझौते पर सहमति जताई। महापंचायत ने राजस्थान सरकार द्वारा तय समय में गुर्जर समुदाय को अनुसूचित जनजाति वर्ग में आरक्षण देने की सिफारिश नहीं करने की स्थिति में आंदोलन को शांतिपूर्ण तरीके से देशव्यापी स्तर पर चलाने, आंदोलन के दौरान मारे गए 26 बेगुनाह लोगों की हत्या करने वाले लोगों के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज करने, गोली कांड की न्यायिक जांच कराने और गुर्जर समुदाय को अनुसूचित जनजाति वर्ग में आरक्षण देने के मुद्दे पर राजस्थान सरकार द्वारा गठित जसराज चोपड़ा समिति के समक्ष समाज का पक्ष मजबूती से रखने का प्रस्ताव भी ध्वनिमत से पारित किया गया।

राष्ट्रपति भवन या राजनीतिक भवन !







राष्ट्रपति चुनाव के लिये राजनैतिक दलों की खींचतान और कुछ राजनेताओं की टिप्पणियों ने पूरे चुनाव के माहौल को न सिर्फ़ खराब किया बल्कि राष्ट्रपति भवन को राजनीतिकभवन में भी तब्दील कर दिया. यह सही है कि आकड़े प्रतिभा पाटिल के पक्ष में हैं मगर वह भी एक राजनेता ही हैं. आंकड़े पक्ष में नहीं होने से कलाम का व्यक्तित्व छोटा नहीं हो जाता. क्या यह सम्भव नहीं था कि कलाम न सही मगर उनकी जगह कोई गैरराजनैतिक व्यक्तित्व को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया जाता. यह परम्परा कायम रखने में आखिर बुराई ही क्या थी? दरअसल राजनैतिक दलों को अपने रबर स्टांप के उनकी राजनीतिक फितरत में साथ देने वाला व्यक्तित्व भी चाहिये. उनकी नजर में और इस लिहाज से कलाम फिट नहीं बैठे. शायद इसी लिये कलाम पर सहमति नहीं हो सकी और कलाम खुद पीछे हटे मगर शालीनता से. उन्होंने भी अपनी टिप्पणी दी मगर उन राजनेताओं की तरह नहीं जिन्होंने कलाम को रिटायर होने की सलाह दे डाली. उनकी भावनाएं भी देखिए----

जनता का राष्ट्रपति कहलाना चाहूंगा: कलाम

राष्ट्रपति एपीजे कलाम अपने पांच वर्ष के कार्यकाल को जनता के राष्ट्रपति के रूप में याद किया जाना पसंद करेगे। कलाम ने दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव नहीं लड़ने के फैसले को सही ठहराते हुए कहा कि वह एक राजनीतिक प्रक्रिया में पक्ष नहीं बनना चाहते और राष्ट्रपति भवन की छवि नहीं खराब करना चाहते। उन्होंने लाभ के पद विधेयक को लौटाने को अपने कार्यकाल का सबसे मुश्किल फैसला माना। कलाम ने एक विशेष बातचीत में उक्त बातें कहीं। पिछले पांच साल के दौरान राजनीतिज्ञों के साथ अनुभव पूछने पर कलाम ने कहा कि पहले उनसे मेरा रिश्ता वैज्ञानिक के रूप में रहा है और उसके बाद राष्ट्र प्रमुख के रूप में। उन्होंने कहा कि भारत में राजनीतिक राजनीति और विकासात्मक राजनीति दो तरह की चीजें हैं। राजनीतिक राजनीति चुनावों से संबंधित है और वह भी महत्वपूर्ण है। विकासात्मक राजनीति देश के आर्थिक विकास से संबंधित है। कलाम ने कहा कि इसीलिए वह चाहेंगे कि कोई राजनीतिक दल सामने आकर यह कहे कि वह पांच साल में अमुक उपलब्धियां हासिल कर दिखाएगा तो दूसरा कहे कि वह ऐसा तीन साल में कर देगा। उन्होंने कहा कि मैं चाहता हूं कि राजनीतिक राजनीति 30 प्रतिशत हो और 70 प्रतिशत विकासात्मक राजनीति हो। इस समय स्थिति उलट है। दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव नहीं लड़ने के उनके बयान के बारे में पूछने पर कलाम ने कहा कि वह नहीं चाहते थे कि राष्ट्रपति भवन को एक राजनीतिक प्रक्रिया में घसीटा जाए। जब आपकी दिलचस्पी होती है और आप राष्ट्रपति भी हो तो आपको एक उम्मीदवार के रूप में प्रचार करना होगा। उन्होंने कहा कि जब हम किसी राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं तो यह राजनीतिक प्रक्रिया नहीं होती। मैं किसी राजनीतिक प्रक्रिया का पक्ष नहीं बनना चाहता। कलाम ने कहा कि मैं राष्ट्रपति भवन का नाम नहीं बदनाम करना चाहता, जिसे मेरे कार्यकाल के दौरान जनता का भवन बना दिया गया है। कलाम का पांच साल का कार्यकाल 24 जुलाई को पूरा होने जा रहा है। राष्ट्रपति के रूप में उपलब्धियों के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति भवन में हर साल पांच से दस लाख लोग आते हैं। केवल बड़े लोग ही नहीं बल्कि आम लोग भी। मैं राष्ट्रपति भवन को राजनीतिक भवन नहीं बनाना चाहता। राष्ट्रपति ने अपने कार्यकाल में सबसे मुश्किल वक्त लाभ का पद विधेयक को संसद को लौटाने को माना। उन्होंने कहा कि स्वाभाविक रूप से लाभ का पद विधेयक को लौटाने का फैसला सबसे कठिन था। संविधान के तहत राष्ट्रपति ऐसा कर सकता है, लेकिन ऐसा करने वाला मैं पहला राष्ट्रपति हूं। उन्होंने कहा कि देश में बहस भी छिड़ गई थी और संसद ने कुछ दिशानिर्देश बनाने के बारे में फैसला किया था। राष्ट्रपति ने पिछले साल मई में लाभ के पद विधेयक को वापस लौटा दिया था, जिसमें 56 पदों को विधेयक की जद से बाहर रखा गया था। कलाम ने संसद से विधेयक पर पुनर्विचार करने के लिए कहा था। साथ ही कहा कि इस विधेयक में व्यापक पात्रता तय होनी चाहिए तथा इसे उचित एवं तार्किक बनाने की जरूरत है। उन्होंने यह भी कहा था कि विधेयक को सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में स्पष्ट एवं पारदर्शी ढंग से लागू किया जाना चाहिए। विधेयक को वापस करते हुए कलाम ने संसद के दोनों सदनों से कहा था कि वे इसे पूर्व तिथि से लागू करने पर विचार करें। उन्होंने कहा कि दूसरी सबसे मुश्किल घड़ी यह थी कि देश में जैव ईधन का उपयोग कैसे शुरू किया जाए। उन्होंने कहा कि अब सरकार पेट्रोल एवं डीजल में दस प्रतिशत जैव ईधन को मिलाने पर सहमत हो गई है। राष्ट्रपति ने उम्मीद जताई कि कार निर्माता अपने इंजनों में ऐसी तब्दीली लाएंगे कि जैव ईधन के प्रतिशत को बढ़ाया जा सके। गैर राजनीतिक व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाए जाने के सुझाव के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति एक अच्छा इंसान होना चाहिए और ऐसा होकर ही वह चाहे पुरुष हो या महिला राष्ट्रपति भवन को संपन्न बना सकेगा। कलाम ने इन सवालों को टाल दिया कि देश का अगला राष्ट्रपति कौन होगा। उन्होंने कहा कि मेरा मानना है कि राष्ट्रपति चाहे पुरुष आए या महिला वह नैसर्गिक आत्मविश्वास के साथ आएगा और राष्ट्रपति भवन को संपन्न बनाएगा। कलाम ने कहा कि पूर्व के सभी राष्ट्रपतियों को देखें तो पाएंगे कि हर एक की अलग-अलग क्षेत्रों में क्षमता थी। एक दार्शनिक था तो एक शिक्षक कोई महान राजनेता था तो कोई न्यायपालिका में महत्वपूर्ण योगदान कर चुका था। यह पूछने पर कि अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने दो प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया दोनों के साथ उनके राजनीतिक समीकरण कैसे थे, कलाम ने कहा कि दोनों प्रधानमंत्रियों की अपनी-अपनी नैसर्गिक क्षमता है। एक निर्णय लेने की प्रक्रिया का महारथी था तो एक विशेषज्ञ है। उन्होंने कहा कि कभी-कभी एक व्यक्ति के पास निर्णय लेने की क्षमता होती है तो दूसरे में विशेषज्ञता। दोनों का मेल बेहतरीन होगा। कलाम ने सुझाव दिया कि भारत को त्रि-आयामी रणनीति के जरिये सौर ऊर्जा, परमाणु ऊर्जा तथा जैव ईधन पर ध्यान केंद्रित करते हुए ऊर्जा सुरक्षा के बजाय ऊर्जा आत्मनिर्भरता का सोचना चाहिए। उन्होंने कहा कि सौर ऊर्जा बहुतायत में है, जबकि सौर सेल्स की दक्षता फिलहाल 15 प्रतिशत ही है। लेकिन उन्होंने उम्मीद जताई कि नैनो टेक्नालाजीज के जरिये पांच साल में इसे बढ़ाकर 45 प्रतिशत किया जा सकेगा। परमाणु ऊर्जा के बारे में कलाम ने कहा भारत में यूरेनियम के भंडार सीमित हैं और इसीलिए इसकी आपूर्ति के लिए हमें तमाम तरह के लोगों से समझौते करने पड़ते हैं। उन्होंने कि भारत में थोरियम के भंडार विश्व में सबसे अधिक है और हमें थोरियम आधारित ऊर्जा पर अधिक ध्यान देना चाहिए। पेट्रोलियम उत्पादों के आयात पर निर्भरता को कम करने के लिए जैव ईधनों के मिश्रण को बढ़ाने की बात की। फिलहाल पेट्रोल में दस प्रतिशत एथेनाल मिलाने की प्रक्रिया शुरू की गई है, जबकि डीजल में अखाद्य तेल का मिश्रण करने के प्रयोग चल रहे हैं। राष्ट्रपति ने महिलाओं की जबर्दस्त हिमायत करते हुए कहा कि आज महिलाएं संसद और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण पाने के लिए संघर्ष कर रही हैं और आप सब उसमें मदद कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि उन्होंने खुद देखा है कि जिन पंचायतों में सरपंच महिला है, वह बढि़या काम कर रही हैं। उन्होंने कहा कि जब पंचायतों में महिला बेहतर काम कर सकती हैं तो विधानसभाओं और संसद में क्यों नहीं। कलाम ने राष्ट्रपति पद का कार्यकाल समाप्त होने के बाद उनकी योजनाओं के बारे में पूछे जाने पर कहा कि वह देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों को पढ़ाएंगे। यह पूछने पर कि क्या वह चेन्नई जाकर पढ़ाएंगे, उन्होंने कहा कि चेन्नई ही क्यों-मैं कई जगहों पर जाऊंगा-ग्रामीण विश्वविद्यालयों, प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालयों अंतरिक्ष एवं अनुसंधान विश्वविद्यालयों तथा नालंदा विश्वविद्यालय में भी। सकल घरेलू उत्पाद की नौ प्रतिशत विकास दर पर बहुत उत्साह नहीं दिखाते हुए कलाम ने कहा कि केवल जीडीपी के आकलन को आर्थिक विकास का संकेतक नहीं माना जाना चाहिए। मैं राष्ट्रीय संपन्नता इंडेक्स की सलाह देता हूं। उन्होंने कहा कि एनपीआई में जीडीपी गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में कटौती और सामाजिक मूल्य शामिल हैं। सामाजिक मूल्य की अवधारणा संयुक्त भारतीय परिवार की प्राचीन संस्थान से निकली है। कलाम ने यह बात इस सवाल के जवाब में कही कि क्या तेज आर्थिक विकास के फायदे समाज के अत्यंत गरीब लोगों तक पहुंच रहे हैं। राष्ट्रपति ने कहा कि जीडीपी का फायदा उनकी पसंदीदा परियोजना पूरा (ग्रामीण क्षेत्रों में शहरी इलाकों जैसे सुविधाएं मुहैया कराना) के जरिए जनता तक पहुंचाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि वह कार्यकाल पूरा होने के बाद पूरा परियोजना के लिए काम करेंगे। शहरी क्षेत्र के लोगों को मिलने वाली सुविधाएं ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को क्यों नहीं दी जा सकतीं। कलाम ने मीडिया से कृषि क्षेत्र के विकास में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए कहा और कृषि क्षेत्र को देश के 65 करोड़ लोगों की जीवनरेखा बताया।
खतरे में राष्ट्रपति पद की गरिमा !

देश में राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर जैसा राजनीतिक माहौल बना दिया गया है और विभिन्न राजनीतिक समूह जिस प्रकार टकराव की स्थिति में आ खड़े हुए हैं वह भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं। देश के प्रथम नागरिक के रूप में राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए राजनीतिक दलों और खासकर सत्तापक्ष को जिस तरह कार्य करना चाहिए वैसा बिल्कुल भी नहीं किया गया। परिणाम यह हुआ कि एक असमंजस का माहौल कायम हो गया। मौजूदा राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की ओर से दूसरे कार्यकाल के लिए अपनी दावेदारी पेश करने का संकेत देने और ऐसी स्थिति में उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत द्वारा उनका समर्थन किए जाने की घोषणा से राजनीतिक माहौल में जो गर्मी आई थी वह तो समाप्त हो गई, लेकिन बेहद अप्रिय तरीके से। संप्रग और वामदलों के नेताओं ने अब्दुल कलाम के खिलाफ तीखी टिप्पणियां करके जिस तरह उनके प्रति असम्मान प्रदर्शित किया उसकी कहीं कोई आवश्यकता नहीं थी। राष्ट्रपति को यह नसीहत देना राजनीतिक शिष्टाचार के बिल्कुल खिलाफ है कि वह दूसरी पारी का ख्वाब न देखें। शरद पवार जैसे मंझे राजनेता ने जिस तरह क्रिकेट की भाषा में राष्ट्रपति कलाम की पारी खत्म होने की बात कही उससे इस पद की गरिमा गिरी। आखिर मौजूदा राष्ट्रपति को कोई इस तरह की सलाह कैसे दे सकता है? शरद पवार और साथ ही लालू यादव की टिप्पणियों से यह साफ हो गया कि आज के राजनेता राष्ट्रपति पद के प्रत्याशियों अर्थात भावी राष्ट्र प्रमुख के प्रति कैसा भाव रखते हैं और उनकी कितनी कद्र करते हैं? हमें यह नहीं भूलना चाहिए राष्ट्रपति पद के लिए जो गंभीर प्रत्याशी सामने आए है उनमें से ही कोई एक राष्ट्र प्रमुख बनेगा। राष्ट्रपति पद पर आसीन होने के उपरांत उसके प्रति सभी को राजनीतिक शिष्टाचार का प्रदर्शन करना होगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मौजूदा समय इस शिष्टाचार का प्रदर्शन करने के बजाय उसकी धज्जिायां उड़ाई जा रही है। एक ओर जहां संप्रग के घटकों के नेताओं ने राष्ट्रपति कलाम पर कटाक्ष करने में संकोच नहीं बरता वहीं दूसरी ओर कांग्रेस ने इस पद की अपनी उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल को यह हिदायत देने में देर नहीं की कि वह सार्वजनिक मंचों से ऐसा कुछ न कहे जिससे संप्रग का चुनावी एजेंडा प्रभावित हो। उन्हे यह हिदायत महिलाओं में पर्दा प्रथा संबंधी उनके एक बयान के संदर्भ में दी गई। इस सबसे समाज में यही संदेश गया कि प्रतिभा पाटिल कांग्रेस के नेतृत्व वाले संप्रग शासन की कठपुतली बनकर राष्ट्रपति भवन में प्रवेश करेंगी। यदि वह राष्ट्रपति बनने में सफल होती है, जैसा कि आज के दिन नजर भी आ रहा है तो उनके लिए इस संवैधानिक पद की गरिमा बरकरार रखना कठिन कार्य होगा। उन पर पहले दिन से यह दबाव होगा कि वह स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने में सक्षम राष्ट्र प्रमुख दिखें। वर्तमान में तो ऐसा दिख रहा है कि उन्हे सार्वजनिक मंचों से अपना भाषण कांग्रेस से अनुमति लेकर देना होगा। भविष्य में जो भी हो, यह तथ्य है कि अतीत में कांग्रेस के कई कठपुतली नेता राष्ट्रपति पद पर आसीन हो चुके हैं। राष्ट्रपति चुनाव की गहमागहमी के बीच प्रतिभा पाटिल पर एक के बाद एक जैसे आरोप लगे वे हतप्रभ करने वाले है। ये आरोप उनकी दावेदारी को कमजोर करते है। उन पर एक आरोप यह है कि उन्होंने हत्या के मामले में फंसे अपने भाई को बचाने के लिए अपने पद का इस्तेमाल किया। उन पर दूसरा आरोप अपने स्वामित्व वाली चीनी मिल के लिए बैंक से हासिल किए गए करोड़ों रुपये के ऋण को न लौटाने का है। फिलहाल ये आरोप राजनीति से प्रेरित नजर आते हैं, लेकिन आम जनता के मन में यह सवाल तो उठेगा ही कि इन आरोपों में कोई सच्चाई तो नहीं है? चीनी मिल के लिए प्राप्त ऋण को न लौटाने का मामला तो मिल और बैंक के बीच का वाणिज्यिक प्रकरण नजर आता है और इसका प्रतिभा पाटिल के राजनीतिक जीवन से कोई लेना-देना नहीं भी हो सकता, लेकिन हत्या के आरोपी अपने भाई को बचाने का मामला गंभीर रूप ले सकता है। ध्यान रहे कि प्रतिभा पाटिल पर ऐसा आरोप लगाने वाली महिला हत्या का शिकार बने जलगांव कांग्रेस जिलाध्यक्ष की विधवा हैं। वह अपने आरोपों के सिलसिले में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलकर पहले भी गुहार लगा चुकी है। कुछ केंद्रीय मंत्रियों ने प्रतिभा पाटिल पर लगाए गए आरोपों को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया है, लेकिन क्या यह महत्वपूर्ण नहींकि इस हत्याकांड के अभियुक्तों को राजनीतिक कारणों से बचाने के आरोपों के चलते ही मुंबई हाईकोर्ट ने मामले की जांच सीबीआई से कराने के आदेश दिए थे? प्रतिभा पाटिल पर लगे आरोपों की सच्चाई कुछ भी हो, ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने राष्ट्रपति पद के लिए उन्हे उम्मीदवार बनाने का फैसला जल्दबाजी में या किसी मजबूरी में किया और इसके पूर्व वह उनके राजनीतिक जीवन का सही तरह से आकलन भी नहीं कर सकी। भले ही आज कांग्रेस प्रतिभा पाटिल पर लगे आरोपों को विरोधियों की साजिश बता कर खारिज कर रही हो, लेकिन यह कांग्रेस के रणनीतिकारों की भूल का नतीजा है कि पार्टी को बचाव की मुद्रा अपनानी पड़ रही है। कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने प्रतिभा पाटिल का राष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में नामांकन तो करा दिया है, लेकिन यदि किसी कारण उनकी दावेदारी कमजोर पड़ती है या फिर उनसे जुड़े विवादों का दौर नहीं समाप्त होता तो यह उनके साथ-साथ संप्रग के लिए भी शर्मनाक होगा। प्रतिभा पाटिल पर लगे आरोपों को लेकर पक्ष-विपक्ष के नेताओं के बयान यही संकेत देते हैं कि राष्ट्रपति चुनाव को लेकर राजनीतिक दांव-पेंच का दौर जारी रहेगा। इससे यदि किसी की क्षति होगी तो राष्ट्रपति पद की गरिमा की, जबकि राजनेताओं की पहली कोशिश इस पद की गरिमा बरकरार रखने की होनी चाहिए। राष्ट्रपति की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल पर लगे आरोपों ने यह साबित कर दिया कि आज के दौर में ऐसे राजनेता मिलना मुश्किल हैं जो किसी तरह के आरोपों के घेरे में न हों। इसका एक अर्थ यह भी है कि राष्ट्रपति पद के लिए स्वच्छ छवि के उम्मीदवार को खोज निकालना कठिन है। यह स्थिति भारतीय राजनीति की विडंबना को ही उजागर करती है। इस संदर्भ में राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम एक अपवाद कहे जाएंगे। यह दु:खद है कि बेहद साफ-सुथरी छवि और लोकप्रिय होने के बाद भी कलाम के नाम पर आम सहमति बनाना तो दूर की बात रही, उलटे उन पर कटाक्ष किए गए और वह भी केंद्रीय मंत्रियों की ओर से। बावजूद इस सबके अब्दुल कलाम ने जिस तरह राष्ट्रपति पद और भवन को विवादों से दूर रखने के उद्देश्य से दोबारा चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया उससे उनकी शालीनता और हृदय की विशालता का पता चलता है। इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने राष्ट्रपति की गरिमा को बढ़ाने के साथ-साथ इस पद को लोकप्रिय भी बनाया। अब यह समय ही बताएगा कि आगामी राष्ट्रपति ऐसा करने में सफल रहते हैं या नहीं? यह सवाल इसलिए, क्योंकि फिलहाल राजनीतिक दल राष्ट्रपति पद की गरिमा की परवाह करते नहींदिखते।
कलाम को ठेस पहुंचाने की मंशा नहीं थी: दासमुंशी
सरकार ने कहा कि तीसरे मोर्चे द्वारा दूसरे कार्यकाल के लिए चलाए जा रहे अभियान को लेकर राष्ट्रपति कलाम को ठेस पहुंचाने का उसका कोई इरादा नहीं था, लेकिन यह दुर्भाग्यजनक है कि उनका नाम विवाद में घसीटा गया। संसदीय कार्यमंत्री प्रियरंजन दासमुंशी ने शनिवार को कहा कि राष्ट्रपति तब तक राष्ट्रपति हैं जब तक वह पद पर हैं। हम उनके पद का सम्मान करते हैं और कलाम बहुत ही सम्मानित हैं। दासमुंशी का यह बयान तीसरे मोर्चे की उस टिप्पणी पर आया, जिसमें कहा गया था कि कलाम कुछ केंद्रीय मंत्रियों के बयानों से आहत हैं। दासमुंशी ने कहा कि मैंने जो कुछ भी कहा वह यह था कि यदि कोई यह घोषणा कर चुका हो कि वह चेन्नई चला जाएगा और अध्यापन शुरू करेगा, अचानक कुछ नेताओं से मिलने के बाद वह यह कहता है कि यदि जीत सुनिश्चित हो तो वह चुनाव लड़ सकता है।
प्रतिभा पाटिल ने पर्चा भरा
भारत में राष्ट्रपति पद के लिए सत्तारुढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) और वामपंथी दलों की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल ने शनिवार को अपना नामांकन पत्र दाख़िल कर दिया. नामांकन के समय राजस्थान की पूर्व राज्यपाल प्रतिभा पाटिल के साथ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी थी. प्रतिभा पाटिल ने लोकसभा सचिवालय में जाकर अपना नामांकन भरा.राष्ट्रपति चुनाव के लिए नामांकन पत्र दाख़िल करने की आख़िरी तारीख़ 30 जून है. ज़रूरी हुआ तो मतदान 19 जुलाई को होगा और मतगणना 21 जुलाई को होगी.मौजूदा राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने शुक्रवार को स्पष्ट कर दिया था कि वे दूसरे कार्यकाल के लिए चुनाव नहीं लड़ेंगे. हालाँकि कुछ दिन पहले तीसरे मोर्चे के नेताओं के साथ बैठक में उन्होंने कहा था कि अगर जीत सुनिश्चित हो तो वे चुनाव लड़ सकते हैं.लेकिन तीसरे मोर्चा उनके नाम पर आम सहमति नहीं जुटा पाया. उम्मीद है कि अब प्रतिभा पाटिल के सामने मुख्य प्रतिद्वंद्वी होंगे निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में उप राष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत.राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन(एनडीए) ने तो शेखावत को समर्थन देने की घोषणा कर रखी है लेकिन तीसरे मोर्चे ने अभी अपना रुख़ स्पष्ट नहीं किया है. शुक्रवार को भारतीय जनता पार्टी ने अपील की थी कि राष्ट्रपति कलाम के इनकार के बाद तीसरे मोर्चे को भैरोसिंह शेखावत का समर्थन करना चाहिए. लेकिन अभी तक तीसरे मोर्चे की ओर से इस बारे में कोई बयान नहीं आया है.नामांकनइस बीच सत्तारुढ़ यूपीए और वामपंथी दलों के कई शीर्ष नेताओं की मौजूदगी में प्रतिभा पाटिल ने अपना नामांकन दाख़िल कर दिया. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के अलावा उनके साथ लालू प्रसाद यादव, शरद पवार, रामविलास पासवान, टीआर बालू और रामदास अठावले भी थे.नामांकन के समय वामपंथी नेता सीताराम येचुरी, गुरुदास दास गुप्ता और अबनी रॉय भी थे. इसके अलावा गृह मंत्री शिवराज पाटिल, विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी सहित मौजूदा सरकार के कई मंत्री भी वहाँ मौजूद थे.नामांकन पत्र दाखिल करने से पहले प्रतिभा पाटिल अपने परिवारजनों के साथ राजघाट गईं और महात्मा गांधी की समाधि पर फूल चढ़ाए.
उपराष्ट्रपति पद की मांग नहीं की: करुणानिधि
द्रमुक अध्यक्ष और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि ने शनिवार को उन खबरों को खारिज कर दिया, जिनमें पार्टी द्वारा उपराष्ट्रपति पद की मांग का जिक्र किया गया है। संवाददाताओं ने उनसे पूछा था कि क्या पार्टी ने उपराष्ट्रपति पद प्राप्त करने की योजना बनाई है। करुणानिधि ने कहा कि उन्हें इस बात की खुशी है कि एक महिला को राष्ट्रपति बनाने की मुहिम में उन्होंने अपना योगदान दिया। तीसरे मोर्चे के बारे में उन्होंने कहा कि उन लोगों ने खुद को यह नाम भर दे दिया है। अभी तक किसी को यह नहीं पता कि उनका नेता कौन है। कावेरी जल विवाद के बारे में उन्होंने कहा कि उन्हें इस मुद्दे के बातचीत से सुलझ जाने का विश्वास है। उन्होंने कहा कि इस बारे में सभी कदम उठाए जा रहे हैं। करुणानिधि ने कहा कि कावेरी के जल को लेकर लड़ाई 1968 में शुरू हुई और न्यायाधिकरण का अंतिम फैसला आने के बाद यह संघर्ष मील का पत्थर अर्जित कर चुका है। मदुरै विधानसभा उपचुनाव तय कार्यक्रम के मुताबिक 26 जून को नहीं कराने के लिए निर्वाचन आयोग पर दबाव डालने के बारे आई खबरों का भी उन्होंने खंडन किया। उन्होंने अन्नाद्रमुक प्रमुख जे जयललिता के इन आरोपों को भी खारिज कर दिया कि राज्य में बिजली कटौती हो रही है। उन्होंने कहा कि राज्य के पास अतिरिक्त बिजली है और यह बिजली पंजाब और महाराष्ट्र को दी जा रही है।
शेखावत 25 को दाखिल करेंगे नामांकन

उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत आगामी 25 जून को राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए नामांकन पत्र दाखिल करेंगे। राजग प्रवक्ता सुषमा स्वराज ने शनिवार को प्रेस कांफ्रेंस में यह जानकारी दी। उन्होंने बताया कि राजग की बैठक में शेखावत के नामांकन पत्र दाखिल करनेके बारे में फैसला किया गया। बैठक में राजग संयोजक जार्ज फर्नाडीस एवं लोकसभा में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी सहित विभिन्न नेताओं ने भाग लिया।

Thursday 21 June 2007

उम्रदराज को ही मिलती है ऊंची कुर्सी !

देश की करीब आधी आबादी भले ही 25 वर्ष से कम उम्र के लोगों की हो, मगर यह बात तय है कि इस बार भी भारत का नया राष्ट्रपति अन्य देशों के शीर्ष पद पर बैठे नेताओं की तुलना में काफी उम्रदराज होगा। भारत के शासनाध्यक्ष प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी 74 साल के हैं। राष्ट्रपति पद की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल जहां 72 वसंत देख चुकी हैं वहीं भैरों सिंह शेखावत 83 साल के हैं जिन्हें समर्थन देने का एलान राजग ने किया है। तीसरे मोर्चे ने मौजूदा राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम को समर्थन देने की घोषणा की है। कलाम भी इस समय 75 वर्ष के हैं। भारतीय राजनीति में उम्र कभी बड़ा मुद्दा नहीं रहा, लेकिन अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस सरीखे देशों पर नजर डालें तो अपेक्षाकृत युवा तस्वीर उभरती दिखती है। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन अभी 54 साल के हैं। रूस की बागडोर संभालते समय उनकी उम्र थी सिर्फ 47 साल। फ्रांस में हालिया चुनावों में समाजवादी उम्मीदवार सेगोलीन रोयाल को शिकस्त देकर राष्ट्रपति बने दक्षिणपंथी निकोलस सारकोजी अभी महज 52 साल के हैं। रोयाल भी इस साल 22 सितंबर को 54 वर्ष की ही होंगी। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर जहां 53 वर्ष के हैं, वहीं आगामी दिनों में उनकी जगह लेने वाले गार्डन ब्राउन 56 वर्ष के ही हैं। ब्लेयर 1997 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने तो उनकी उम्र थी महज 44 साल। जर्मनी की पहली महिला चांसलर एंजेला डी मर्केल इस वर्ष 17 जुलाई को महज 53 वर्ष की होंगी, जबकि वहां के राष्ट्रपति ह‌र्स्ट कोहलर ने 64 वसंत देखे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश भले ही 61 साल के हैं लेकिन वर्ष 2008 में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों की होड़ में आगे बताई जा रहीं रिपब्लिकन हिलेरी क्लिंटन 59 वर्ष की ही हैं। ब्राजील के राष्ट्रपति लुइस इनासियो लुला डी सिल्वा 61 वर्ष के हैं तो पड़ोसी पाकिस्तान में सेना की वर्दी में राष्ट्रपति पद पर बैठे परवेज मुशर्रफ भारतीय शीर्ष नेताओं से अधिक चुस्त नजर आते हैं। आगामी 20 अगस्त को वह 64 साल के होंगे। जाने-माने संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप और नेतृत्व क्षमता के लिए वर्ष 2006 के प्रतिष्ठित मैगसायसाय पुरस्कार से सम्मानित अरविंद केजरीवाल भारतीय राजनीति में बुजुर्ग नेताओं के दबदबे को चुनाव प्रक्रिया, सत्ता को कब्जे में रखने के स्वार्थ और सामाजिक संरचना से जोड़ कर देखते हैं। कश्यप ने कहा कि भारत का सामाजिक ढांचा ही ऐसा है कि अगर 50 साल में कोई राष्ट्रपति हो गया तो 55 साल की उम्र में उसके लिए करने को क्या होगा। कोई पूर्व राष्ट्रपति किसी विश्वविद्यालय में पढ़ाता दिखे तो लोगों को कुछ अटपटा सा लगेगा जबकि विदेश में ऐसा नहीं है। उन्होंने कहा कि इस सिलसिले में राजनीतिक दलों की भी भूमिका है। उनका ढांचा ही ऐसा है कि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में उभरने तक उम्मीदवार की काफी उम्र हो चुकी होती है। केजरीवाल ने कहा कि उम्र के सवाल पर गौर करते समय देखना होगा कि चुनाव की प्रक्रिया कैसी है। राष्ट्रपति का चुनाव सीधे जनता नहीं करती है लिहाजा कोई उससे पूछ भी नहीं रहा है कि उसका इस बारे में क्या सोचना है। केजरीवाल ने कहा कि शीर्ष राजनीतिक पदों के बारे में उम्र एक कारक तो है ही। दरअसल विभिन्न राजनीतिक दलों में बुजुर्ग नेताओं ने अपना दबदबा कायम कर रखा है। वे नहीं चाहते कि युवा नेतृत्व उभरे। भारत के राष्ट्रपति पद पर सबसे कम उम्र 64 वर्ष में नीलम संजीव रेड्डी पहुंचे थे। पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और ज्ञानी जैल सिंह दोनों ही 66 वर्ष में शीर्ष पद पर पहुंचे। इस पद पर सर्वाधिक उम्र में आर वेंकटरमण और के आर नारायणन आए थे। वीवी गिरि 75 साल सर्वपल्ली राधाकृष्णन और शंकर दयाल शर्मा , कलाम 71 साल, जाकिर हुसैन 70, फखरुद्दीन अली अहमद 69 साल की उम्र में राष्ट्रपति बने।

'सेक्स ट्वाय' : कंडोम का नया अवतार



मध्य प्रदेश में कंडोम के एक नए पैकेट ने विवाद पैदा कर दिया है. इस पैकेट में कंडोम के साथ कंपनी उत्तेजना पैदा करने वाला 'उपकरण' मुफ्त में दे रही है. यह 'उपकरण' दरअसल एक 'वाइब्रेटिंग रिंग' यानी कंपन पैदा करने वाला छल्ला है.विवाद है कि क्या इसे 'सेक्स ट्वाय' माना जाना चाहिए?दरअसल, भारत में 'सेक्स टॉय' की बिक्री प्रतिबंधित है और इसे बेचने के लिए दो साल तक की सज़ा और दो हज़ार रुपए तक का ज़ुर्माना हो सकता है. मध्य प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी सरकार ने कथित 'सेक्स ट्वाय' बेचे जाने की शिकायतों की जाँच कर रही है.लेकिन ऐसे उपभोक्ता भी हैं जो इससे ख़ुश हैं और मानते हैं कि इस पर रोक नहीं लगाई जानी चाहिए. दिलचस्प तथ्य यह है कि यह उत्पाद बेचने वाली कंपनी हिन्दुस्तान लेटेक्स लिमिटेड कोई बहुराष्ट्रीय या निजी कंपनी नहीं बल्कि भारत सरकार की एक कंपनी है.


विवाद

इस विवाद की शुरुआत तब हुई जब हिंदुस्तान लेटेक्स लिमिटेड के 'क्रेज़ेंडो' ब्रांड के कंडोम के पैक कुछ लोगों के हाथ लगे. एक सौ पच्चीस रुपये के इस कंडोम के पैक के साथ कंपनी उत्तेजना पैदा करने वाला एक यंत्र मुफ़्त दे रही है. यही बात कुछ लोगों को नागवार ग़ुज़री. इसका विरोध करने वाले लोगों का कहना है कि यह भारतीय संस्कृति के ख़िलाफ़ है. बजरंग दल के ज़िला संयोजक देवेंद्र रावत कहते हैं, "इस तरह की चीज़ें भारतीय संस्कृति को बिगाड़ती हैं, इस पर तो न सिर्फ़ मध्य प्रदेश में बल्कि पूरे देश में रोक लगानी चाहिए."जब यह सवाल मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सामने उठाया गया तो उन्होंने पत्रकारों से कहा, "अगर हमें कुछ भी ग़लत लगा तो हम इस पर कार्रवाई करेंगे. भारतीय संस्कति के ख़िलाफ कुछ भी बर्दाशत नही किया जाएगा. राज्य के लोक निर्माण मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने इसके ख़िलाफ़ राज्य सरकार को एक चिट्ठी भी लिखी है. उनका कहना है कि उन्हें ख़बर मिली है कि छात्र हॉस्टल में इसका प्रयोग कर रहे हैं और लगता है कि कंडोम के बहाने से 'सेक्स ट्वाय' बेचा जा रहा है.उन्होंने कहा, " मुख्यमंत्री ने समुचित कार्रवाई करने का आश्वासन दिया है. इसे प्रदेश में किसी भी तरह से नही बेचने दिया जाएगा." मगर कई लोग ऐसे भी हैं जिनहें ये उत्पाद काफ़ी भा रहा है. ऐसे ही एक उपभोक्ता हैं कुणाल सिंह उनका कहना है, "इसका विरोध करना ग़लत है, जिसका दिल चाहे वो इस्तेमाल करे. जिसे अच्छा नहीं लगता है वो इसका इस्तेमाल न करे."शहर में मेडिकल स्टोर चलाने वाले रवि भगनानी का कहना है कि इसको बेचने पर प्रतिबंध लगाना ग़लत होगा. वो कहते है कि उनके पास आने वाले लोग उनसे कुछ नया माँगते है और यह कंडोम पैकेट कुछ नया तो देता ही है. वहीं कुछ लोग मानते हैं कि सरकार बेवजह की बातों में जनता को उलझाए रखना चाहती है. अंसार सिद्दीक़ी कहते हैं, "अगर ये बिकता भी है तो इससे जनता को क्या फ़ायदा या नुकसान है?″वो कहते है कि ये इंसान की निजी ज़िंदगी में दख़ल है. उनका मानना है कि लोग इंटरनेट के ज़रिए भी इसको ख़रीद सकते है, इसलिये अगर राज्य में इसकी बिक्री पर प्रतिबंध लगता भी है तो वो बेमानी होगा.


'सेक्स ट्वाय'


इस कंडोम पैकेट के साथ एक रिंग या छल्ला दिया जा रहा है. इस रिंग के साथ एक बैटरी लगी हुई है. इसे लिंग पर चढ़ाया जा सकता है और इसे चालू करते ही इसमें कंपन शुरु हो जाता है. कंपनी का कहना है कि इसका उपयोग कंडोम के साथ करने की सलाह की दी जाती है. कंपनी का दावा है कि ये इस्तेमाल करने वाले व्यक्ति को लगभग बीस मिनट तक आनंद का अनुभव कराएगा.जानकारी के मुताबिक ये यंत्र चीन में बना हुआ है.क़ानून के मुताबिक़ भारत में 'सेक्स-ट्वाय' बेचने पर प्रतिबंध है. हालांकि इसमें 'सेक्स-ट्वाय' का ज़िक्र नहीं है लेकिन कहा गया है कि ऐसी कोई भी सामग्री जो समाज में अश्लीलता फ़ैलाए उसे बेचना क़ानूनन अपराध है.भोपाल के अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक जीके पाठक का कहना है कि भारतीय दंड विधान की धारा 292 के तहत ऐसा कोई सामान बेचने के लिए दो साल तक की सज़ा और दो हज़ार तक का ज़ुर्माना हो सकता है. हालांकि उन्होंने इस पर कोई टिप्पणी नहीं की कि कंडोम के साथ बेची जा रही रिंग 'सेक्स-ट्वाय' है या नहीं.


'सेक्स ट्वाय नहीं'


हिंदुस्तान लेटेक्स लिमिटेड ने बीबीसी से कहा है कि उनका उद्देश्य 'क्रेज़ेंडो' के साथ दिए जा रहे रिंग को 'सेक्स-ट्वाय' की तरह बेचना नहीं है. कंपनी ने कहा है कि यह कोई प्रतिबंधित उपकरण नहीं है और मार्च 2007 में जब कंपनी ने अपना उत्पाद बाज़ार में उतारा उससे पहले ही यह बाज़ार में था.हिंदुस्तान लेटेक्स लिमिटेड का कहना है कि इस उत्पाद को लेकर अब तक कोई शिकायत नहीं मिली है. बीबीसी को भेजे गए अपने बयान में कंपनी ने कहा है, "यह शिकायत आम रही है कि लोगों को कंडोम के साथ यौन संबंध बनाकर संतुष्टि नहीं मिलती इसलिए कंपनी ने यह रिंग साथ में देने की योजना बनाई है ताकि कंडोम के साथ इसके उपयोग से आनंद में वृद्धि की जा सके.


"वापस लेने को तैयार


वाइब्रेटर' कंडोम 'क्रेजेंडो' को लेकर मध्य प्रदेश में हो रहे विरोधों के मद्देनजर हिन्दुस्तान लेटेक्स लिमिटेड (एचएलएल) इसे वहां के मार्केट्स से वापस लेने को तैयार है। कंपनी ने कहा है कि अगर मध्य प्रदेश सरकार क्रेजेंडो की बिक्री का विरोध करती है, तो हमें इसे वहां के मार्केट्स से वापस लेने में कोई गुरेज नहीं है। हालांकि एचएलएल देश के दूसरे भागों में इसकी ब्रिकी जारी रखने की बात कही है। कंपनी के एक अधिकारी ने कहा कि ऐसा लग रहा है कि मध्य प्रदेश सरकार क्रेजेंडो की बिक्री पर रोक लगा सकती है। ऐसी दशा में कंपनी को इसे वहां के मार्केट्स से वापस में कोई एतराज नहीं है। उन्होंने बताया कि देश के अन्य भागों में इस प्रॉडक्ट को लोग हाथोंहाथ ले रहे हैं और उन्हें इससे कोई शिकायत नहीं है। यही वजह है कि पूरे देश के बाजारों से इसकी वापसी का सवाल ही पैदा नहीं होता है। उन्होंने यह भी कहा कि क्रेजेंडो को सेक्सी टॉय के रूप में बेंचने का कंपनी का कोई इरादा नहीं है और ना ही हम इसकी मार्केटिंग सेक्सी टॉय के रूप में कर रहे हैं। गौरतलब है कि क्रेजेंडो ब्रांड नाम से मध्य प्रदेश के बाजारों में वाइब्रेटिंग रिंग के साथ पेश किए गए इस कंडोम से राज्य में विवाद पैदा हो गया है। इसके चलते सरकार क्रेजेंडो पर बैन लगाने की सोच रही है। बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध बैटरी से चलने वाला यह कंडोम तीन के सेट में 125 रुपये की कीमत का है। मध्य प्रदेश सरकार इस बात का पता लगा रही है कि कहीं यह सेक्स टॉय तो नहीं है। हालांकि दवा विक्रताओं के मुताबिक यह भारत का पहला कानूनी रूप से वैध सेक्स टॉय है। कंपनी का कहना है कि क्रेजेंडो के जरिए उन लोगों की मदद का प्रयास किया गया है जिन्हें सही तरीके से सेक्स एक्साइमेंट नहीं होने की शिकायत है। वाइब्रेटिंग रिंग की विशेषता के साथ क्रेजेंडो नामक कंडोम को मध्य प्रदेश के मार्केट्स में करीब 6 महीने पहले लाया गया था।


कंडोम बार


चंडीगढ़ में एक नाइट क्लब खुला है जहाँ ग्राहकों को कंडोम दिया जा रहा है. इसके संचालकों का कहना है कि यह भारत का पहला 'कंडोम बार' है. सबसे दिलचस्प बात ये है कि इस बार के पीछे चंडीगढ़ इंडस्ट्रियल एंड टूरिज्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन (सिटको) है. सिटको के अधिकारियों का कहना है कि उन्हें इस परियोजना से जुड़कर गर्व महसूस हो रहा है क्योंकि यह एड्स की रोकथाम की दिशा में काम करेगा. सिटको के प्रमुख जसबीर सिंह बीर ने कहा, "कंडोम को दोस्त के रूप में देखा जाना चाहिए न कि शर्मिंदगी की चीज़ के रूप में."वे कहते हैं, "इससे एड्स को रोकने में मदद मिलेगी ही, साथ ही लोग उस मुद्दे पर भी खुलकर बात करेंगे जो जल्द ही देश की सबसे बड़ी समस्या बन सकता है."उनका कहना है कि इसके पीछे गंभीर मक़सद है कि युवाओं को एचआईवी संक्रमण और एड्स के प्रति जागरुक बनाना है. सिटको ने इस बार को बढ़ावा देने के लिए कई आयोजनों की तैयारी की है जिनमें एचआईवी से पीड़ित पुरूषों और महिलाओं के लिए विशेष प्रतियोगिताएँ शामिल हैं.चंडीगढ़ के कलाग्राम में स्थित इस बार के अंदर भी कंडोम के रंग-बिरंगे पैकेटों से सजावट की गई है. यहाँ शराब विशेष तौर पर डिज़ाइन किए गए गिलासों में परोसी जाती है जिन पर कंडोम का लोगो बना है, इसी तरह वेटरों की पोशाक और टोपी भी कंडोम की तस्वीर बनी है. टेबल पर रखे मैटों पर सुरक्षित सेक्स को बढ़ावा देने के लिए संदेश लिखे गए हैं. बिल चुकता करने के बाद ग्राहकों को खुदरा पैसे की जगह कंडोम या कंडोम की तस्वीर वाली टोपी, टी-शर्ट जैसी चीज़ें दी जाती हैं जिनसे कंडोम का प्रचार हो.


भारत में कंडोम ज़रूरत से ज़्यादा बड़े


भारत में कराए गए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि ज़्यादातर पुरुष ये मानते हैं कि बाज़ार में मिलने वाले कंडोम उनकी ज़रूरत से ज़्यादा बड़े है. ये सर्वेक्षण भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने कराया है. भारतीय पुरुषों के लिए छोटे कंडोम उपलब्ध कराने की मांग के बाद ही ये अध्ययन कराया गया था.पिछले दो वर्षों से भारत के वैज्ञानिक समुदाय का एक वर्ग एक बेहद मुश्किल काम में जुटा था. ये काम ना तो विज्ञान के क्षेत्र में किसी नई खोज से जुड़ा था और ना ही अंतरिक्ष में नई ग्रह की तलाश से. असल में ये एक सावधानी भरा काम था जिसका उद्देश्य लोगों के लिंग का नाप लेना था.थोड़ा झिझकते थोड़ा शर्माते हुए और लोगों से नज़र बचाते हुए देशभर से क़रीब 1200 लोग अपनी इच्छा से तैयार हो गए ताकि लिंग का नाप लेने के काम में वैज्ञानिको की मदद ले सकें. पूरी प्रक्रिया में इतनी सावधानी बरती गई कि इंच का छोड़िए मिलीमीटर तक का हिसाब रखा गया. शोध कर रहे वैज्ञानिकों ने इस बात का ध्यान रखा कि जिन लोगो के लिंग का नाप लिया गया वो देश के हर हिस्से, हर वर्ग और धर्म का प्रतिनिधित्व करते थे.


अध्ययन


हिम्मत जुटा कर तैयार हुए लोगों के लिए इस शोध के नतीजे मायूसी भरे रहे. क्योंकि लोगों को ये जानकर निराशा हुई कि उनके लिंग का आकार अंतरराष्ट्रीय मापदंड पर 3 से 5 सेमी छोटा है. इन अंतरराष्ट्रीय मापदंड का इस्तेमाल कंडोम बनाने में किया जाता है. यानी शोध के अनुसार भारतीयों के लिए उपलब्ध कंडोम उनकी ज़रूरत से थोड़े बड़े है.इस मामले के विशेषज्ञ डॉक्टर चंदर पुरी भी इस बात से सहमत हैं कि भारतीयों की ज़रूरत के अनुरूप ही कंडोम बनाए जाने चाहिए ताकि उन्हें आराम रहें. डॉक्टर पुरी के अनुसार अपेक्षाकृत बड़े कंडोम होने से लोग यौन संबंध का पूरी तरह आनंद नही उठा पाते. साथ ही यौन क्रिया के दौरान कंडोम फटने का भी ख़तरा रहता है. स्थिति कभी कभी विकट भी हो सकती है क्योंकि एचआईवी वायरस से संक्रमित होने का ख़तरा भी बना सकता है. माना जाता है कि भारत में लोग किसी मेडिकल स्टोर पर जा कर आत्मविश्वास के साथ छोटे आकार का कंडोम मांगने में थोड़ा घबराते हैं.इस समस्या से निपटने के लिए डॉक्टर पुरी का सुझाव है कि देशभर में वेंडिग मशीन लगानी चाहिए ताकि लोग अपनी पसंद का कंडोम ले सकें. लेकिन कुछ लोग इससे सहमत नहीं. पुरूषों की पत्रिका मैक्सिम के भारतीय संस्करण के पूर्व संपादक सुनील मेहरा इस मामले में दिलचस्प राय रखते है. उनका कहना है कि ये महत्वपूर्ण नहीं कि आकार कितना बड़ा है बल्कि अहम बात ये है कि आप उसे इस्तेमाल में कैसे लाते है.सुनील मेहरा की बात पर यक़ीन करें तो भारतीयो ने अभी तक इस क्षेत्र में संतोषजनक प्रदर्शन किया है. अंत में प्रसिद्ध कवि एलेक्जेंडर पोप से माफ़ी माँगते हुए वो यही कहते हैं कि आकार बड़ा है या छोटा इंच में है या सेंटीमीटर में ऐसी बातों में ख़ुशी मूर्ख लोग ही ढूँढते है.


यौनकर्मियों को कंडोम


हॉलीवुड स्टार रिचर्ड गियर और बॉलीवुड अभिनेत्री बिपाशा बसु ने यौनकर्मियों से अपील की है कि वे अपने ग्राहकों पर कंडोम का इस्तेमाल करने का दबाव डालें. फ़िल्म जगत की दोनों हस्तियाँ एड्स विरोधी अभियान के तहत मुंबई की यौनकर्मियों से रू-ब-रू हुए.एड्स के ख़िलाफ़ विश्वव्यापी मुहिम का हिस्सा बने गियर ने इस जानलेवा बीमारी से बचने के लिए यौनकर्मियों को 'कंडोम नहीं तो सेक्स नहीं' का नारा दिया. उन्होंने मुंबई और निकटवर्ती शहर थाणे से आए लगभग 15 हज़ार यौनकर्मियों से इस नारे को दोहराने का आह्वान किया.गियर और बसु ने एचाईवी संक्रमण के बारे में जागरूकता फैलाने वालों को सम्मानित किया. इस अवसर पर बसु ने डांस के साथ गाने भी गाए. गियर ने चार साल पहले 'हीरोज प्रोजेक्ट' की शुरुआत की थी जिसका मक़सद आम भारतीयों को एचआईवी से बचाव के बारे में शिक्षित करना है.गियर ने इस मौके पर समचार एजेंसी एपी से कहा, "पहले यौनकर्मियों में एचआईवी के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. अब स्थिति काफी बदल चुकी है. जब यौनकर्मी कंडोम को संबंध बनाने की बुनियादी ज़रूरत बताते हैं तो यह एक सशक्त बयान होता है." संयुक्त राष्ट्र के आकलन के मुताबिक भारत में लगभग 57 लाख लोग एचआईवी से संक्रमित हैं जो किसी एक देश में सबसे बड़ी संख्या है.


कोलकाता का सोनागाछी


कोलकाता के रेडलाइट इलाक़े सोनागाछी में वेश्याओं के हितों की लड़ाई लड़ने वाली संस्था 'दुर्बार महिला समन्वय समिति' ने एशिया में वेश्याओं के इस सबसे बड़े घर में एचआईवी और एड्स जैसी जानलेवा बीमारियों का प्रसार रोकने के लिए कुछ ख़ास लोगों की सहायता ली है. और ये लोग हैं इस वेश्यालय के स्थाई ग्राहक. इसके लिए स्थाई ग्राहकों का एक संगठन ‘साथी' भी बनाया गया है.‘साथी' के ये लोग अब इस वेश्यालय में जिस्म का धंधा करने वाली वेश्याओं और यहां आने वाले नए ग्राहकों को सुरक्षित सेक्स का पाठ पढ़ाते हैं. पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता के उत्तरी इलाके में स्थित सोनागाछी में लगभग 10 हज़ार वेश्याएँ रहती हैं. लेकिन ‘दुर्बार’ और उसके सहयोगी संगठन ‘साथी’ की कोशिश है कि यहाँ आने वाला हर कोई 'ख़तरों' से पहले से ही परिचित रहे.प्रशिक्षणवैसे, यहाँ आने वाले ज़्यादातर ग्राहक एड्स या सुरक्षित सेक्स के बारे में अनभिज्ञ हैं, लेकिन 'साथी' ने ऐसे लगभग दो सौ नियमित ग्राहकों की एक सूची बनाई है जो यहां आने वाले ग्राहकों को कंडोम के इस्तेमाल और नियमित तौर पर ख़ून की जाँच के बारे में बताते हैं.इस वेश्यालय में नियमित तौर पर आने वाले सुनील मुखर्जी कहते हैं, "हम सोनागाछी में ही अपना ज्यादातर समय बिताते हैं. इसलिए यहां आने वाले नए ग्राहकों को संक्रामक बीमारियों के प्रति आगाह करना हमारा कर्त्तव्य है."वे कहते हैं, "शरीर की भूख मिटाने के लिए यहां आने वाले ज़्यादातर लोग कंडोम का इस्तेमाल करने से मना कर देते हैं और यहीं से हमारा काम शुरू होता है." मुखर्जी व उनके दोस्त रोजाना शाम को वेश्यालय का दौरा करते हैं ताकि ग्राहकों व वेश्याओं को सुरक्षित सेक्स के तरीकों की जानकारी देकर उनको भी एड्स जागरूकता अभियान में शामिल किया जा सके.बदलती स्थितियाँमुखर्जी कहते हैं, "कुछ ग्राहक तो उनकी बात सुनने के लिए तैयार ही नहीं होते. लेकिन ज़्यादातर लोग न सिर्फ़ उनकी बातों को ध्यान से सुनते हैं बल्कि सुरक्षित सेक्स के तरीक़ों की जानकारी देने वाला परचा भी ले लेते हैं." दुर्बार महिला समन्वय समिति का दावा है कि इस साल की शुरूआत में शुरू की गई इस परियोजना के तहत अब तक पाँच हजार से ज़्यादा लोगों को सुरक्षित सेक्स के तरीकों से अवगत कराया जा चुका है.समिति की परियोजना निदेशक भारती डे, जो खुद भी देह व्यापार में रह चुकी हैं, कहती हैं, "हमने इस परियोजना के तहत अब तक जितने लोगों को सलाह दी है उनमें से 80 फीसदी ग्राहक व वेश्याएँ अब कंडोम का इस्तेमाल करती हैं. लेकिन अब भी इस मामले में बहुत कुछ किया जाना है."सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं, सोनागाछी आने वाले 90 फीसदी लोगों को अब तक इस बात की जानकारी नहीं है कि यौन संबंधों के ज़रिए भी एड्स हो सकता है. कार्यकर्ता कहते हैं कि यौनजनित बीमारियों की जानकारी देने से फ़ायदा हो रहा है.विश्व स्वास्थ्य संगठन के अधिकारी व राज्य के पूर्व स्वास्थ्य निदेशक प्रभाकर चटर्जी कहते हैं, "देश में एड्स के बढ़ते प्रकोप को ध्यान में रखते हुए शुरू की गई इस परियोजना के बेहतर नतीजे सामने आ रहे हैं और यही वक़्त की ज़रूरत है."सोनागाछी इलाक़े में रोज़ाना हज़ारों नए ग्राहक आते हैं.

एड्स से निपटने के एक कार्यक्रम के तहत तमिलनाडु सरकार वेश्याओं या महिला यौनकर्मियों को 60 हज़ार कंडोम बाँटा जा रहा है. ये कंडोम विशेष रुप से महिलाओं के लिए ही बनाए गए हैं. यह कार्यक्रम राज्य की एड्स नियंत्रण समिति और परिवार नियोजन ट्रस्ट मिलकर चला रहे हैं. चार महीने चलने वाले इस कार्यक्रम के तहत सात और राज्यों में भी इसी तरह की मुहिम चलाई जाएगी. इसके अंतर्गत देश भर में कोई 11 हज़ार ऐसी महिलाओं तक पहुँचने का अनुमान है जिनके एड्स ग्रसित होने की सबसे अधिक संभावना है. इस कार्यक्रम में हिंदुस्तान लेटेक्स फ़ैमिली प्लानिंग प्रमोशन ट्रस्ट सहयोग दे रहा है.



महिला कंडोम


महिला कंडोम पॉलीयूरेथीन की एक पतली झिल्ली से बनी छोटी थैली की तरह होती है जिसे महिलाएँ योनी में लगा सकती हैं. इससे गर्भधारण और यौन रोगों दोनों से बचा जा सकता है. उल्लेखनीय है कि राज्य में कुछ कंपनियों ने महिला कंडोम को बिक्री के लिए बाज़ार में पेश किया था लेकिन इसमें बहुत सफलता नहीं मिली.इसके पीछे एक बड़ा कारण इसका महंगा होना भी रहा क्योंकि कुछ कंडोमों की क़ीमत तो सौ रुपए तक भी है. जबकि पुरुषों का एक कंडोम एक रुपए में भी मिल जाता है. क़ीमत की इस समस्या से निपटने के लिए राज्य एड्स नियंत्रण समिति ने 60 हज़ार कंडोम एक लाख अस्सी हज़ार रुपए में ख़रीदे हैं. जबकि इसकी वास्तविक क़ीमत 50 रुपए प्रति नग है. राज्य में 50 हज़ार यौनकर्मियों के बीच काम करने वाली एक संस्था की प्रमुख लक्ष्मीबाई का कहना है कि महिलाओं को दिन प्रतिदिन के ख़तरों से बचाने के लिए महिला कंडोम सबसे प्रभावी उपाय है.

Sunday 17 June 2007

मायावती : दलितों की नई उम्मीद



( आज के दलित की आखिरी कडी )
उत्तर प्रदेश के इन चुनावों ने देश की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति में बड़े परिवर्तन के संकेत दिए हैं. मायावती ने जिस तरह दलितों और अगड़ी जातियों में तालमेल का अदभुत रसायन तैयार किया है, वह अपने आपमें मिसाल है.इससे न केवल उन्हें बहुमत मिला बल्कि जात-पात विहीन समाज की स्थापना के सपने को भी नींव हासिल हुई.कहने की ज़रूरत नहीं है, ये वहीं मायावती हैं जिन्होंने कभी नक्सलवादियों के मशहूर नारे तिलक, तराजू और तलवार... को अपना लिया था.उस समय लगता था कि जातियों में बंटे भारतीय समाज में बिखरी पड़ी अलगाव की लकीरों को निहित स्वार्थ में वे गहरा करने में जुटी पड़ी हैं.पर जल्दी ही उनकी समझ में आ गया कि अकेले दलित समाज के वोट बैंक में सामर्थ्य नहीं है कि वह उन्हें सत्ता की चौहद्दियों का स्वामिनी बना सके.इसलिए उन्होंने सर्वजन हिताए की पुरानी विरासत को अपनाया. परिणाम सामने है.'तिलक, तराजू और तलवार...' के नारे से 'हाथी नहीं गणेश...' है तक की उनकी यात्रा जिन मोड़ों से होकर गुजरी वह अपने आपमें अलग लेख का विषय है.परंतु उनके इस सियासी कायांतरण को भारतीय लोकतंत्र की जीत मानी जानी चाहिए.ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि भारतीय समाज में जातियों के अलगाव के बावजूद भाइचारे की जड़ें बहुत गहरी हैं.इस देश में एकता की धारणा हज़ारों साल पुरानी है. हर भारतीय जाने अनजाने उसे अपने मन में धारण किए रहता है.इसीलिए अलगाववादी या उत्तेजक भाषण देनेवाले एक सीमा तक ही अपना उल्लू सीधा कर पाते हैं.अंतत: उन्हें या तो स्वर बदलना होता है या किसी बड़े सियासी गुट का दामन थामना होता है. एनडीए और यूपीए के घटक दल इसका उदाहरण हैं.अपनी बोली और अपने राग अलापने के बावजूद अपने अस्तित्व के लिए उन्हें ऐसे गठजोड़ करने ही पड़ते हैं.इसीलिए उत्तर प्रदेश का मौजूदा बदलाव सुकून देता है. इससे पहले बिहार में हम इसकी भूमिका बनती देख चुके हैं. बिहार में लालू का एमवाई (मुसलमान और यादव) समीकरण था तो उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह इसी समीकरण के सहारे राज कर रहे थे.

मायावती ने एक नई रणनीति अपनाकर यह दिखा दिया है कि धार्मिक उन्माद फैलाए बिना भी किस तरह से चुनावी राजनीति को न सिर्फ़ प्रभावित किया जा सकता है बल्कि परिवर्तन की एक नई बयार चलाई जा सकती है. नतीजों पर ग़ौर करें तो बहुजन समाज पार्टी ने पूरे उत्तर प्रदेश में अपनी पैठ बढ़ाई है और उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि बताती है कि सभी धर्मों और जातियों के लोगों के वोट बसपा को मिले हैं.जैसा जनाधार इस बार बसपा को मिला है ऐसा किसी ज़माने में कांग्रेस का हुआ करता था लेकिन उत्तर प्रदेश दशकों तक एक छत्र सरकार चलाने वाली कांग्रेस अपनी लाख कोशिशों के बावजूद अपनी पैठ बढ़ाने में नाकाम रही है. राज्य के इस जातीय समीकरण को मायावती ने समय रहते भाँप लिया और जो नया समीकरण पेश किया उसने सबकी आँखें खोल दीं. यह दिलचस्प सवाल है कि इस तरह की रणनीति अपनाने और राजनीतिक हिम्मत दिखाने का ख़याल किसी और पार्टी में क्यों नहीं आया जबकि कांग्रेस, भाजपा और समाजवादी पार्टी, सभी दल बड़े-बडे नेताओं और रणनीतिकारों से भरे पड़े हैं.

बड़ी चुनौतियाँ


कोई शक नहीं कि मायावती ने राजनीति को एक नई दिशा दी है लेकिन चुनावी नतीजे उनके पक्ष में आने के साथ ही उनके लिए अनेक बड़ी चुनौतियाँ भी सामने आ खड़ी हुई हैं.सबसे बड़ी चुनौती यही है कि जिस परिवर्तन की शुरुआत उन्होंने की है उसे आगे बढ़ाना बहुत ही मुश्किलों भरा रास्ता है और उनमें प्रमुख होंगी - सामाजिक समरसता क़ायम करना और भ्रष्टाचार जैसे दैत्य का मुक़ाबला करना.मायावती की असली कसौटी यही होगी कि वह स्वच्छ प्रशासन देने में किस हद तक कामयाब हो पाती हैं और जातीय समीकरण एक बार अपने पक्ष में भुनाने के बाद कामयाबी का बस यही पैमाना होगा क्योंकि बहुत देर तक इस तरह के लोगों को धर्म या जाति जैसे मुद्दों पर अपने साथ नहीं रखा जा सकता जब तक कि कोई सरकार लोगों की बेहतरी के लिए ठोस काम नहीं करे. उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार और सार्वजनिक सेवाओं में कामचोरी इस हद तक अपनी जड़ें जमा चुके हैं कि उन्हें ख़त्म करना तो दूर, उनमें कुछ कमी करना और सरकारी कर्मचारियों की सोच में कुछ बदलाव लाना भी अंगद के पैर को हिलाने से कम नहीं होगा.भारतीय समाज में सदियों से चली आ रही जाति प्रथा ने सामाजिक समरसता को दीमक की तरह चाटा है. मायावती की पार्टी का जनाधार हालाँकि दलित समुदाय है लेकिन ब्राहमण वर्ग को भी साथ लाकर उन्होंने इस सामाजिक समरसता की जो बयार चलाई है उसे आगे बढ़ाना भी टेढ़ी खीर होगी.अपनी सरकार का बहुमत बनाए रखना भी मायावती के लिए एक बडी़ चुनौती होगी.मायावती को सरकार बनाने के लिए किसी अन्य दल के समर्थन की ज़रूरत नहीं है जिसका मतलब है कि सभी विपक्ष में बैठेंगे और इसी उधेड़-बुन में लगे रहेंगे कि मायावती के बहुमत को किस तरह से कमज़ोर किया जाए.ऐसे में मायावती को अपने विधायकों की राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को लगातार पूरा करते रहना होगा और इसमें ज़रा सी भी ढील हुई तो ख़तरा बढ़ सकता है.


संगठनात्मक ढाँचा


बहुजन समाज पार्टी का वजूद दो दशक से भी ज़्यादा पुराना हो गया है लेकिन अभी तक उसका कोई ठोस संगठनात्मक ढाँचा उभककर नहीं आया है. पूरी पार्टी किसी ज़माने में सिर्फ़ काँशीराम के इर्दगिर्द घूमती थी और अब वो स्थान मायावती ने ले लिया है.जिस परिपक्व राजनीतिक सोच का परिचय मायावती और उनके सहयोगी नेताओं ने इस चुनाव में दिया है अगर उसे एक सुगठित संगठन का साथ मिल जाए तो उससे एक नया राजनीतिक युग शुरू हो सकता है जो बेशक राष्ट्रीय स्तर पर भी अपना प्रभाव छोड़ेगा.पिछले एक दो-साल के समय पर नज़र डालें तो कई नामी नेता बसपा छोड़कर गए थे और उनका यही आरोप था कि मायावती अपनी पार्टी में लोकतांत्रिक संगठन बनाने में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं लेतीं. इसमें कोई शक नहीं कि मायावती के व्यक्तित्व का करिश्मा आज भारी वोट खींचने की क्षमता रखता है लेकिन इस जनाधार को मज़बूती देने के लिए पार्टी की सत्ता का विकेंद्रीकरण भी ज़रूरी होगा.
बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने चौथी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. पचास सदस्यीय मंत्रिमंडल में उनके अलावा 19 कैबिनेट मंत्रियों, 21 राज्यमंत्रियों (स्वतंत्र प्रभार) और 9 राज्यमंत्रियों को भी राज्यपाल टीवी राजेश्वर ने शपथ दिलाई.मायावती ने मंत्रिमंडल में ऊँची जातियों के अलावा पिछड़े वर्ग की छोटी-छोटी जातियों को भी स्थान दिया है. स्वामी प्रसाद मौर्य विधानसभा का चुनाव हार गए थे, फिर भी उन्हें मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया है, क्योंकि वो महत्वपूर्ण पिछड़ी जाति से आते हैं. मायावती के बेहद करीबी सतीश मिश्रा को मंत्री नहीं बनाया गया है. सतीश मिश्रा राज्यसभा के सदस्य हैं और माना जा रहा है कि वो संगठन में अहम भूमिका निभाएँगे. बाकी 402 सीटों पर हुए चुनाव में बसपा को 206 सीटों पर जीत हासिल हुई है. पिछले चुनाव में पार्टी को 99 सीटें मिली थीं.बसपा नेता मायावती ने शुक्रवार को पत्रकार सम्मेलन में पार्टी की सफलता को बसपा की विचारधारा की जीत बताया था.उनका कहना था, " उत्तर प्रदेश की आम जनता ने साबित किया है कि उसका लोकतंत्र में गहरा विश्वास है. पिछले 14 वर्षों में पहली बार किसी एक पार्टी ने पूर्ण बहुमत के आधार पर सरकार नहीं बनाई है. जनता ने जाति और धर्म से ऊपर उठकर मतदान किया है मायावती के सामने एक बड़ी चुनौती ये है कि उन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों से ख़ुद को बेदाग़ साबित करना होगा. निवर्तमान मुख्यमंत्री मुलायम सिंह जाते-जाते राज्यपाल को ताज कॉरीडोर मामले में मायावती पर लगे आरोपों का पत्र थमा गए. हालाँकि अब सरकार मायावती की होगी और वह इस मामले से बख़ूबी निपट सकेंगी लेकिन प्रदेश को भ्रष्टाचार की जकड़ से मुक्त करना उनकी बड़ी ज़िम्मेदारी होगी.ख़ुद उन पर इस तरह के भी आरोप लगते रहे हैं कि उनकी पार्टी का टिकट खुले रूप में बिकता है. हो सकता है इसमें कोई सच्चाई ना हो लेकिन धुँआ तो वहीं उठता है जहाँ कुछ आग होती है, हालाँकि कोई भी राजनीतिक दल इस तरह के आरोपों से मुक्त नहीं है मगर जितनी ख़बरें इस मामले में बसपा के बारे में फैली, उतनी किसी और दल के बारे में नहीं. यह बात मानी जा सकती है कि हर राजनीतिक दल को चलाने के लिए धन की ज़रूरत होती है तो उसके लिए ईमानदार और पारदर्शी तरीके से चंदा इकट्ठा करने का रास्ता शायद ज़्यादा असरदार और टिकाऊ साबित होगा.मायावती को ख़ासतौर से प्रशासनिक मशीनरी को सुचारू और कार्यशील बनाना होगा और पाँच साल तक वह बदले की राजनीति से ऊपर उठकर अगर प्रदेश और लोगों की भलाई के लिए नीतियाँ बनातीं और योजनाएँ लागू करती रहीं तो उनके राजनीतिक सपने को पूरा होने और पूरे देश की एक राजनीतिक ताक़त बनने से कोई नहीं रोक सकता.

Saturday 16 June 2007

'दुसमय' के मुख्य पात्र : नंदीग्राम-सिंगूर

कोलकाता : शांति प्रक्रिया के बीच पश्चिम बंगाल में पूर्वी मिदनापुर जिले के नंदीग्राम में नए सिरे से तनाव का माहौल बन गया जब नंदीग्राम में शुक्रवार को फिर हिंसा हुई। तृणमूल कांग्रेस समर्थित कमिटी के सदस्यों ने एक राहत शिविर पर हमला किया जिसमें दो पुलिसकर्मी घायल हो गए। आईजी (कानून व्यवस्था) राज कनौजिया ने बताया कि भंगरबेरा में राहत शिविर के पास ड्यूटी पर तैनात इंस्पेक्टर प्रभात सरकार और एक कॉन्स्टेबल भूमि उच्छेद प्रतिरोध कमिटी के कार्यकर्ताओं की अंधाधुंध गोलीबारी में घायल हो गए। कमिटी नंदीग्राम में स्पेशल इकनॉमिक जोन (सेज) के लिए जमीन अधिग्रहण का विरोध कर रही है। यहां सरकारी एसएसकेएम अस्पताल में भर्ती सरकार को सिर में चोट आई है और उनकी हालत गंभीर बताई जाती है। इस बीच नंदीग्राम के गोकुलनगर इलाके में भी तनाव है। यह छात्रों ने स्कूल में पुलिस शिविर पर धावा बोल दिया। छात्र पिछले दो महीने से इस इलाके में पुलिस की मौजूदगी का विरोध कर रहे हैं। पूर्वी मिदनापुर के पुलिस सुपरिंटेंडेंट जी श्रीनिवास ने कहा है कि इस घटना में शामिल छात्रों के खिलाफ पुलिस उचित कार्रवाई करेगी।

नंदीग्राम पर रिपोर्ट पेश की
पश्चिम बंगाल सरकार ने कोलकाता हाई कोर्ट में शुक्रवार को नंदीग्राम पर स्थिति रिपोर्ट पेश की। सरकार ने मुख्य न्यायाधीश एस. एस.निजर की अध्यक्षता वाली 2 सदस्यीय बेंच के सामने अपनी रिपोर्ट पेश की। बेंच ने प्रशासन से सूचना देने को कहा था कि उसने नंदीग्राम में शांति और आर्थिक गतिविधियां बहाल करने के लिए क्या किया है। नंदीग्राम में सेज स्थापित करने के खिलाफ आंदोलन में पुलिस ने गोलीबारी की थी, जिसमें 14 मारे गए थे। रिपोर्ट में कहा गया है कि नंदीग्राम में स्थिति में सुधार हुआ है और आर्थिक गतिविधियां पटरी पर लौट रही हैं। साथ ही हिंसक घटनाओं के बाद घर छोडकर चले गए लोगों को वापस लाने की कोशिशें चल रही हैं।

सिंगूर में भूमि लौटाना संभव नहीं: बुद्धदेव
पश्चिम बंगाल के सीएम बुद्धदेव भट्टाचार्य ने तृणमूल कांग्रेस की मांग पर टाटा मोटर्स की लखटकिया कार प्रोजेक्ट के लिए अधिग्रहित की गई जमीन किसानों को वापस करने से इनकार किया है। हालांकि उन्होंने कहा कि राज्य सरकार वैकल्पिक प्रस्ताव तैयार करेगी। उधर, ममता बनर्जी ने राज्य सरकार के फैसले पर कहा कि अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो समस्या का समाधान हो सकता है। इससे पहले राज्य कैबिनेट की कोर कमिटी की बैठक में नंदीग्राम और सिंगुर मामले की चर्चा हुई। बैठक के बाद पीडब्ल्यूडी मिनिस्टर क्षिति गोस्वामी ने बताया कि टाटा प्रोजेक्ट के लिए अधिग्रहित की गई जमीन वापस नहीं की जाएगी। सीएम बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कोर कमिटी को बताया कि इस बाबत सीपीएम के आला नेता ज्योति बसु को भी सूचित कर दिया गया है। उद्योग मंत्री निरुपम सेन ने बसु को बताया है कि टाटा प्रोजेक्ट के लिए ली गई जमीन वापस करना मुमकिन नहीं। नंदीग्राम और सिंगुर मसले पर 4 जून को तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी और ज्योति बसु की बातचीत हुई थी। बैठक में बसु ने ममता को बताया था कि राज्य सरकार दोनों मामलों पर विचार करेगी। उस वक्त दोनों नेता ने इस मुद्दे के हल की उम्मीद जताई थी। तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने दोहराया था कि अपनी जमीन चाहने वाले किसानों को जमीन वापस की जानी चाहिए। उन्होंने कहा था कि इस मसले पर हर दिन पार्टी का रुख नहीं बदलेगा।

नंदीग्राम में चल रही है वर्चस्व की लड़ाई

बंगाल के नंदीग्राम में प्रदर्शनकारियों पर पुलिस की गोलीबारी राज्य में वाम मोर्चा शासन के 30 वर्षों के दौरान कठोर कार्रवाई की पहली घटना नहीं है लेकिन निश्चित रूप से यह ऐसी पहली घटना है जब वामपंथी सरकार ने अपने समर्थक माने जाने वाले ग़रीब किसानों के ख़िलाफ़ ऐसी नृशंस कार्रवाई का आदेश दिया है.
ग़ौरतलब है कि सरकार के भूमि सुधार और सत्ता के विकेंद्रीकरण का फ़ायदा इसी तबके को सबसे ज़्यादा मिला है.
विश्लेषक रणबीर समतदार कहते हैं, ‘‘नंदीग्राम की घटना मार्क्सवादियों के लिए घातक साबित हो सकती है. नंदीग्राम की घटना के बाद मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का रवैया वर्तमान संकट के लिए ज़िम्मेदार है."
समतदार कहते हैं, ‘‘साधरणतः वामपंथी पार्टियों के कार्यकर्ता और प्रशिक्षित काडर सरकार के कार्यक्रमों को नीचे तक पहुँचाते हैं लेकिन इस बार सारी योजना अधिकारियों ने बनाई और एक सुबह ग्रामीणों को बताया कि उनकी ज़मीन का अधिग्रहण किया जा रहा है.’’
मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ख़ुद स्वीकार करते हैं कि नंदीग्राम में ज़मीन अधिग्रहण की योजना में ख़ामियाँ हैं.

बिगड़ती क़ानून व्यवस्था
मुख्यमंत्री ने हाल ही में पत्रकारों से कहा, "मैं मानता हूँ हमने ग़लती की, इसलिए अगर नंदीग्राम के लोग केमिकल हब से होने वाले फ़ायदों से सहमत नहीं हैं तो हम उन पर ये परियोजना नहीं थोपेंगे. हम इसे कहीं और स्थानांतरित कर देंगे."
लेकिन इस तरह के बयान के बाद भी मुख्यमंत्री ने नंदीग्राम में इतनी बड़ी संख्या में सुरक्षाकर्मियों को तैनात क्यों किया?
भट्टाचार्य का विधानसभा में कहना था, "पुलिस वहाँ ज़मीन के अधिग्रहण के लिए नहीं बल्कि बिगड़ती क़ानून व्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए गई थी."
विश्लेषकों का कहना है कि नंदीग्राम में स्थानीय मार्क्सवादी नेताओं के कारण ही पुलिस को गोली चलानी पड़ी. वहाँ किसानों के विरोध की वजह से जनवरी 2007 से मार्क्सवादी पार्टी के लगभग तीन हज़ार समर्थक भागने पर मजबूर हुए हैं.
माकपा सांसद लक्षमण सेठ कहते हैं, "यह नहीं चल सकता. हमे इन लोगों को घर वापस जाने लायक स्थिति बनानी होगी."
दरअसल सेठ की अगुआई वाले हल्दिया विकास प्राधिकरण ने ही इंडोनेशिया के सलीम समूह के प्रस्तावित विशेष आर्थिक क्षेत्र यानी एसईज़ेड के लिए भू-अधिग्रहण का नोटिस दिया था.

वामपंथी वर्चस्व

बंगाल में बहुत कम ही ऐसे मौक़े आए हैं जब मार्क्सवादी राजनीतिक प्रणाली पर विपक्षी दल हावी हो गए हों.
राजनीतिक मामलों के जानकार सव्यसाची बासु रॉय कहते हैं, "अगर मार्क्सवादियों को लगता है कि किसी भी इलाक़े में उनका नियंत्रण कमज़ोर पड़ रहा है तो वे पुरज़ोर विरोध शुरू करते हैं. पार्टी नेतृत्व और उनके हथियारबंद समर्थकों ने वर्ष 2001 के विधानसभा चुनावों के समय पांसकुरा, केसपुर और गारबेटा में ऐसा ही किया था."
वो कहते हैं, "नंदीग्राम में पार्टी का समर्थन अब नहीं रहा और ऐसा एक साल के भीतर ही भू-अधिग्रहण मामले के बाद हुआ है इसलिए उन्होंने पुलिस को कार्रवाई करने के लिए मजबूर किया."

सांस्कृतिक विरोध

नंदीग्राम की घटना के बाद पश्चिम बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार को अगर पिछले तीन दशकों में पहली बार झुकना पड़ा तो इसके पीछे विपक्षी दलों के अलावा सांस्कृतिक विरोध की भी मुख्य भूमिका रही.
नंदीग्राम में इंडोनेशियाई कंपनी सलीम समूह के विशेष आर्थिक क्षेत्र (एसईज़ेड) के लिए ज़मीन अधिग्रहण का विरोध कर रहे बेक़सूर गाँववालों पर पुलिस की गोलीबारी का सांस्कृतिक संगठनों ने जमकर विरोध किया है.
वामपंथी दल इस घटना का राजनीतिक विरोध तो झेल गए लेकिन ये चौतरफ़ा सांस्कृतिक विरोध का ही नतीजा था कि मुख्यमंत्री को घटना के 15 दिनों बाद इस मामले में अपनी गलती क़बूल करनी पड़ी.
चौतरफा विरोध के दबाव में राज्य सरकार को भू-अधिग्रहण की अधिसूचना वापस लेनी पड़ी और वहाँ प्रस्तावित एसईज़ेड परियोजना को रद्द करना पड़ा. मुख्यमंत्री ने कुछ साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों से मिल कर अपनी स्थिति साफ़ करने का भी प्रयास किया. लेकिन उसके बावज़ूद उनके समर्थन में बोलने वालों की तादाद उंगलियों पर गिनी जा सकती है. नंदीग्राम की गोलीबारी के लिए अब भी सांस्कृतिक हलकों में मुख्यमंत्री का भारी विरोध हो रहा है. इसमें वामपंथी बुद्धिजीवी सबसे आगे हैं. उनकी दलील है कि सिर्फ ग़लती मान लेने से इस ग़लती की भरपाई नहीं हो सकती.

सरकार ने इस कांड में मारे गए या घायल हुए लोगों के परिजनों को अब तक एक पैसा भी मुआवज़ा नहीं दिया है. बुद्धदेब भट्टचार्य ने भले गलती मान ली हो पर उऩकी पार्टी माकपा इसे मानने को तैयार नहीं है.माकपा के कार्यकर्ताओं और समर्थकों की घर वापसी सरकार और पार्टी की प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर है. इन लोगों ने नंदीग्राम की घटना के बाद इलाक़ा ख़ाली कर दिया था.बुद्धदेब भट्टाचार्य ने सालों पहले एक नाटक लिखा था- 'दुसमय' यानी बुरा समय. लेकिन नंदीग्राम गोलीबारी के बाद वे ख़ुद ही अपने लिखे उस नाटक के मुख्य पात्र बन गए हैं.
दिलचस्प बात यह है कि गृह, सूचना और संस्कृति मंत्रालय भी बुद्धदेब के ही ज़िम्मे हैं. सांस्कृतिक ख़ेमे के विरोध को ध्यान में रखते हुए मुख्यमंत्री ने राज्य सरकार के सांस्कृतिक परिसर 'नंदन' में जाना छोड़ दिया है. पहले वे नियमित तौर पर नाटक और फ़िल्में देखने शाम को वहाँ जाते थे.नंदीग्राम गोलीबारी का अगले ही दिन सांस्कृतिक स्तर पर भारी विरोध शुरू हो गया था.साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों, अभिनेताओं और नाट्यकर्मियों की बड़ी ज़मात उनके खिलाफ़ हो गई है.
इन लोगों ने नंदीग्राम की तुलना जालियाँवालाबाग से करते हुए बुद्धदेब को जनरल डायर से ख़तरनाक बताया और उनके इस्तीफ़े की माँग उठाई है. राज्य के बुद्धिजीवी इस घटना के विरोध में सड़कों पर उतर आए हैं. वामपंथी कवियों और साहित्यकारों ने सरकार की विभिन्न अकादमियों से इस्तीफ़े दे दिए हैं और सरकारी पुरस्कार लौटा दिए हैं. अब इसके विरोध में कई नाटकों के मंचन का फ़ैसला किया गया है. उनसे जुटी रक़म का इस्तेमाल नंदीग्राम के प्रभावित लोगों के पुनर्वास में किया जाएगा.

वैकल्पिक पैकेज
माकपा के वयोवृद्ध नेता ज्योति बसु ने सिंगूर में किसानों की जमीन के एवज में उन्हें दिए जाने वाले वैकल्पिक मुआवजा पैकेज की सराहना की है। राज्य के उद्योग मंत्री निरूपम सेन द्वारा तैयार किया गया यह पैकेज सिंगूर के उन किसानों के लिए है जिनकी जमीन टाटा मोटर्स की लघु कार परियोजना के लिए अधिग्रहित की गई है। बसु ने पार्टी की राज्य सचिवालय में हुई बैठक के बाद संवाददाताओं से कहा देश में यह सबसे बढ़िया पैकेज है। उन्होंने कहा कि भूमि अधिग्रहण मामले की उच्च न्यायालय में 18 जून को होने जा रही सुनवाई के बाद सेन इस पैकेज का खुलासा करेंगे। यह पूछे जाने पर कि क्या तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी को यह पैकेज अस्वीकार्य लगता है। बसु ने कहा कि इसके लिए कुछ नहीं किया जा सकता। उन्होंने जानना चाहा क्या उन्हें पैकेज की जानकारी है। पश्चिम बंगाल की सरकार ने कल तृणमूल कांग्रेस की यह माँग खारिज कर दी थी कि सिंगूर के किसानों की जमीन उन्हें वापस कर दी जानी चाहिए। लेकिन राज्य सरकार ने कहा था कि वह एक वैकल्पिक पैकेज तैयार कर रही है।

Friday 15 June 2007

कांशीराम और अंबेडकर


मसीहा, दलित उन्नायक, दलित मुक्ति के अग्रदूत, डॉक्टर साहेब, बाबा साहेब... ऐसी कितनी ही संज्ञाओं से बाबा साहेब अंबेडकर को याद किया जाता है. भारत में दलित मुक्ति के आंदोलन में अंबेडकर जी का जो योगदान रहा है, वो विशेष महत्व रखता है.

भीमराव रामजी अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्यप्रदेश के महू में हुआ था. माता भीमाबाई साकपाल और पिता रामजी की वो 14वीं संतान थे. दादा और पिता के ब्रिटिश सेना में होने के चलते उनकी प्राथमिक शिक्षा सैन्यकर्मियों के बच्चों के लिए बने विशेष स्कूल में हुई. लेकिन आगे का रास्ता आसान नहीं था. सेवानिवृत्ति के बाद जब उनके पिता सतारा (महाराष्ट्र) में आकर बसे तो स्थानीय स्कूल में उन्हें जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा. पैतृक गाँव अंबावाड़े (रत्नागिरी) से ही उनके नाम के साथ अंबेडकर जुड़ गया. कक्षा में एक कोने में अलग बैठने और शिक्षकों द्वारा उनकी किताबें तक न छूने जैसे हालातों से जूझते हुए उन्होंने वर्ष 1907 में बॉम्बे विश्वविद्यालय से मैट्रिकुलेशन की परीक्षा पास की. वर्ष 1906 में नौ वर्षिया रमाबाई से विवाह.आगे की पढ़ाई एलिफिंस्टन कॉलेज में की. वर्ष 1912 में राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र से स्नातक होने के बाद उन्हें बड़ौदा में नौकरी मिल गई. वर्ष 1913 में पिता के देहांत के बाद गायकवाड़ के महाराजा ने उन्हें छात्रवृत्ति देकर आगे की पढ़ाई के लिए अमरीका भेजा. कोलंबिया यूनिवर्सिटी से एमए करने के बाद वर्ष 1916 में पीएचडी की उपाधि हासिल की.आगे की पढ़ाई के लिए वो लंदन रवाना तो हुए लेकिन गायकवाड़ के महाराजा ने छात्रवृत्ति रोक कर उन्हें वापस बुला लिया.

राजनीतिकजीवन

महाराजा ने उन्हें अपना राजनीतिक सचिव तो बना लिया, लेकिन महार होने के चलते कोई उनका आदेश नहीं मानता था. अंबेडकर वर्ष 1917 के आखिर में बंबई लौट आए और 31 जनवरी 1920 को 'मूकनायक' नाम का एक पाक्षिक अख़बार निकालना शुरु किया. इस दौरान उन्होंने बंबई के साइदेनहम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एण्ड इकॉनॉमिक्स में अध्यापन भी किया. लेकिन उच्च शिक्षा की ललक उन्हें रोक नहीं पाई और कुछ पैसे इकट्ठा करने के बाद वो वापस लंदन चले गए. वहाँ से विज्ञान में डॉक्टरेट और बैरिस्टरी हासिल कर वह भारत लौटे. जुलाई 1924 में 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा' की स्थापना की. अछूतों को सार्वजनिक तालाबों से पानी भरने का अधिकार दिलाने के लिए 1927 में मुंबई के नज़दीक कोलाबा के चौदार तालाब तक उन्होंने महाड़ पदयात्रा का नेतृत्त्व किया और वहीं 'मनुस्मृति' की प्रतियाँ भी जलाई. वर्ष 1929 में अंबेडकर ने साइमन कमीशन का समर्थन करने जैसा विवादास्पद निर्णय लिया. काँग्रेस ने इस आयोग का बहिष्कार कर संविधान का एक अलग ड्राफ्ट तैयार किया था जिसमें शोषित वर्गों के लिए प्रावधान नहीं होने के चलते अंबेडकर को उनके प्रति संदेह पैदा हो गया.
24 दिसम्बर 1932 को अंबेडकर और महात्मा गाँधी के बीच पूना पैक्ट हुआ. इस पैक्ट में अलग निर्वाचक मंडल के स्थान पर क्षेत्रीय और केंद्रीय विधानसभाओं में आरक्षित सीट जैसे विशेष प्रावधान किए गए. अंबेडकर ने लंदन में हुए तीनों गोलमेज सम्मेलनों में भाग लिया और अछूतों के कल्याण की ज़ोरदार माँग उठाई.वर्ष 1935 में वो गवर्नमेंट लॉ कॉलेज के प्रिंसिपल नियुक्त हुए और इस पद पर दो साल तक रहे.अगस्त 1936 में उन्होंने 'इन्डिपेन्डेंट लेबर पार्टी' गठित की और 1937 में हुए बंबई विधानसभा के चुनावों में इस पार्टी ने 15 सीटें जीतीं.



आजाद भारत में
वर्ष 1947 में भारत के आज़ाद होने के बाद वो बंगाल से संविधान सभा के लिए सदस्य चुने गए और जवाहरलाल नेहरु ने उन्हें अपने मंत्रिमंडल में क़ानून मंत्री बनने के लिए आमंत्रित किया. वे संविधान सभा की प्रारूप समिति के सभापति चुने गए और हिन्दू क़ानूनों को संहिताबद्ध करने के लिए अक्टूबर 1948 में उन्होंने संविधान सभा में हिन्दू संहिता विधेयक पेश किया. विधेयक पर काँग्रेस के भीतर भारी मतभेद होने के कारण पहले इसे सितंबर 1951 तक टाल दिया गया, लेकिन बाद में जब इसमें काँट-छाँट की गई तो व्यथित अंबेडकर ने क़ानून मंत्री का पद छोड़ दिया. बाद में स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में 1952 में वो लोकसभा का चुनाव हार गए लेकिन अपनी मृत्यु के समय तक वो राज्यसभा के सदस्य बने रहे.14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने अपने कई अनुयाइयों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया.


कृतित्व

1916 में शोध निबंध ' दी इवोल्यूशन ऑफ ब्रिटिश फिनांश इन इण्डिया' के नाम से पुस्तक के रूप में प्रकाशित.हालाँकि पहली पुस्तक 'कास्ट्स इन इण्डियाः देयर मैकेनिज्म, जेनेसिस एण्ड डेवेलपमेंट इन इण्डिया' थी.1923 में शोध पत्र ' द प्रॉब्लम ऑफ़ रुपी' पूरा किया, जिसपर लंदन यूनिवर्सिटी ने डॉक्टरेट ऑफ साइंस यानी डीलिट की उपाधि से नवाज़ा.न्यूयॉर्क में लिखे शोध पत्र पर 1937 में पुस्तक 'दि इनहेलेशन ऑफ़ कास्ट' प्रकाशित.1941 से 1945 के बीच कई विवादास्पद किताबें और पर्चे प्रकाशित. इनमें से प्रमुख थे- 'थॉट्स ऑन पाकिस्तान' (इसमें उन्होंने मुस्लिम लीग के रवैये की आलोचना की), 'व्हाट गाँधी एण्ड काँग्रेस हैव डन टू द अनटचेबल्स' (इसमें उन्होंने गाँधी और काँग्रेस के दोहरे रवैये की आलोचना की). 'हू वर द शूद्राज?' में उन्होंने शूद्रों को अछूतों से अलग बताया.
1948 में पुस्तक ' द अनटचेबल्सः ए थिसिस ऑन द ऑरिजिन्स ऑफ़ अनटचेबिलिटी' में हिन्दू धर्म की विसंगतियों की कड़ी आलोचना की.1956 में ' द बुद्धा एण्ड हिज धम्मा' को अंतिम रूप दिया, लेकिन यह उनके मरणोपरांत ही प्रकाशित हो सकी.आख़िरी पुस्तक ' द बुद्धा ऑर कार्ल मार्क्स' थी. जिसकी पाण्डुलिपी को उन्होंने अपनी मृत्यु से चार दिन पहले ही अंतिम रूप दिया था. 1990 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया.

मृत्यु


06 दिसंबर, 1956. (उनके अनुयायी उनकी मृत्यु को महापरिनिर्वाण के रूप में याद करते हैं.)



कांशीराम और उनकी राजनीति
काश! कांशीराम थोड़ा और जी लेते. इसमें और कुछ नहीं तो उत्तर प्रदेश में पार्टी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन जरूर देख लेते. बीमारी वाली अवधि में भी अगर वे सक्रिय रहे होते तो उत्तर प्रदेश ही नहीं अपनी पूरी राजनीति को थोड़ा और मजबूत करते.ऐसी कामनाओं और चाहों का होना यह बताता है कि कांशीराम और उनकी राजनीति की प्रासंगिकता अभी बाकी है और उनके जाने से समाज का, खासकर दलित समाज का काफी नुकसान हो गया है.अकेले दम पर और आरक्षण के ज़रिए निकले दलित अधिकारियों-कर्मचारियों की थोड़ी सी मदद से उन्होंने जो मशाल जलाई उसने मुल्क की राजनीति में भारी बदलाव ला दिया है. लेकिन जाहिर तौर पर उनका मिशन अधूरा है और अगर इसे ढंग से आगे नहीं बढ़ाया गया तो यह बड़ा नुकसान होगा.कांशीराम ने सबसे बड़ा काम तो मुल्क में और खास तौर से हिंदीभाषी प्रदेशों में दलित समाज में प्राण फूंकने का किया है.


उपलब्धियाँ
हजारों साल से दबा यह समाज आज न सिर्फ मुख्यधारा में आया है बल्कि उत्तर प्रदेश जैसे सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक प्रांत के शासन की बागडोर तीन-तीन बार एक दलित महिला के हाथ में आई है.दलितों में कांशीराम और बसपा के लिए जो ललक और प्रेम दिखता है वह विलक्षण है. बसपा के नेतृत्व की अगली चुनौती इन आकांक्षाओं को राजनीतिक हथियार में बदलकर उत्तर प्रदेश जैसी स्थिति बाक़ी राज्यों में करने की है. यह काम मुश्किल है पर कांशीराम का उदाहरण आश्वस्त भी करता है कि ईमानदार कोशिश हो तो यह असंभव नहीं है.
कांशीराम और उनके आंदोलन की यह उपलब्धि कई मायनों में तात्कालिक या अस्थाई किस्म की है. उनकी असली उपलब्धि है दलित समाज के लोगों के बीच स्वाभिमान और आत्मविश्वास जगाना. बाबा साहब तो महानायक थे ही. बसपा आंदोलन ने झलकारी बाई और संभाजी महाराज जैसे अपने नए नायक खड़े किए. उनके ऐतिहासिक योगदान को स्पष्ट किया. उनके अपने आंदोलन में लीडर भी अपनी जाति या अपने पुरखों का नाम करते हैं. इस धारा को इसी सोच में कौन आगे बढ़ाएगा? कांशीराम ने अपने लक्ष्यों को पाने के लिए समझौते किए, पर लक्ष्य कभी ओझल नहीं हुए.


नया नेतृत्व
बसपा के अब के नेतृत्व ने भी अभी तक कोई बड़ी चूक नहीं की है, पर उस पर कांशीराम जैसा भरोसा नहीं होता. इस भरोसे पर खरा उतरना भी नए नेतृत्व की चुनौती होगी. कांशीराम की राजनीति की एक और बड़ी खूबी यह है कि उसमें बाहर से थोपा हु्आ कुछ भी नहीं है. इस पर अमेरिकी अश्वेत आंदोलन या बाहरी राजनीतिक दर्शनों का ज़्यादा असर नहीं था. उनका अपना जीवन भी न तो अभाव दिखाने वाला था न ब्राह्मणवादी नेतृत्व की विलासिता की कार्बन कापी वाला, दलित नेतृत्व के लिए उनके जीवन जीने का ढंग भी एक चुनौती बना रहेगा. वे बीते दो-तीन साल से बीमार थे. बसपा बनाने से लेकर अब तक की मात्र दो दशक की उनकी राजनीति और उपलब्धियाँ भी सिर्फ दलित नेताओं के लिए ही नहीं सबके लिए चुनौती रहेगी. उन लोगों के लिए और ज़्यादा जो दशकों से मई दिवस, रूसी क्रांति दिवस पर रैलियाँ निकालने का काम, गाँधी और नेहरू का नाम भुनाने या फिर राम का नाम लेकर सत्ता हथियाने के खेल में लगे रहे हैं. आज़ाद भारत के सभी नेताओं की तुलना में अगर कांशीराम 19 नहीं ठहरते तो उनकी गैर मौजूदगी जाहिर तौर पर सबके लिए नुकसानदेह है और उनका नाम और काम समाज राजनीति में नया करने वाले हर आदमी के लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा.
पंजाब में जन्मे और महाराष्ट्र में नौकरी करने वाले कांशीराम ने अपनी राजनीति का अखाड़ा उत्तर प्रदेश को बनाया. पिछले 20 वर्षों में कांशीराम ने उत्तर प्रदेश और उसके माध्यम से भारत की राजनीति में उथल-पुथल मचा दी.
कांशीराम की राजनीति शुरू हुई ब्राह्मणवाद के विरोध से लेकिन सत्ता सोपान पर पार्टी को चढ़ाने के लिए उन्होंने किसी से समझौता करने से परहेज़ नहीं किया, न ही समझौता तोड़ने में संकोच किया.उनकी राजनीति का आधार बने सरकारी सेवाओं में काम करने वाले दलित अधिकारी, वोट बैंक बढ़ाने के लिए उन्होंने अपनी पार्टी को अति पिछड़ों और मुसलमानों के गरीब तबक़े से जोड़ा.कांशीराम की इस राजनीति का पहला शिकार बनी काँग्रेस पार्टी. कांशीराम के ख़तरे को भाँपकर 1986 में दलित अफ़सरों को वीर बहादुर सिंह की सरकार ने महत्वपूर्ण पदों पर बिठाया लेकिन इन अधिकारियों ने अपनी प्रतिबद्धता नहीं बदली और तन-मन-धन से बीएसपी का ही साथ दिया.इसका परिणाम ये हुआ कि दलितों और मुसलमानों का समर्थन खोकर काँग्रेस पार्टी सत्ता से 1989 में बाहर हो गई जिसके बाद आज तक उसकी वापसी नहीं हो सकी.


तेज प्रगति
1984 में गठित बहुजन समाज पार्टी पाँच वर्ष बाद 1989 में दर्जन भर विधायकों के साथ विधानसभा में पहुँची. इसके बाद कांशीराम ने इलाहाबाद से वीपी सिंह के ख़िलाफ़ और अमेठी से राजीव गाँधी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा लेकिन नाकाम रहे.
मुलायम सिंह यादव की मदद से वे इटावा से लोकसभा में पहुँचे और 1992 में उन्होंने नारा दिया--'मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गए जयश्री राम.' बाबरी मस्जिद टूटी, विधानसभा चुनाव हुए और सपा-बसपा गठबंधन सरकार में आई, लेकिन कांशीराम चैन से कहाँ बैठने वाले थे.अपनी शिष्या मायावती को 'उत्तर प्रदेश की महारानी' बनवाने के लिए कांशीराम ने दो ब्राह्मण नेताओं--पीवी नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी से साँठगाँठ करके मुलायम को मुख्यमंत्री की कुर्सी से उतार फेंका. मायावती मुख्यमंत्री बनीं.फिर भारतीय जनता पार्टी के साथ नई पारी खेलते-खेलते बहुजन समाज से सर्वसमाज की बातें शुरू हुईं लेकिन मायावती ने बीजेपी को भी गच्चा दे दिया, अगले चुनाव में कांग्रेस से तालमेल कर लिया.लेकिन इसका फ़ायदा बहुजन समाज पार्टी नहीं बल्कि काँग्रेस को हुआ. कांशीराम ने तय किया कि अगला चुनाव पार्टी अपने दम पर लड़ेगी.
अपनी कूटनीति से 2002 में उन्होंने मुलायम सिंह यादव को सत्ता में आने से रोकने के लिए एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी से हाथ मिला लिया.अब तक मायावती का अपना क़द अपने गुरू कांशीराम से भी ऊँचा हो चुका था. कांशीराम की सेहत ख़राब रहने लगी थी. मायावती को लगा कि भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाना दीर्घकालिक राजनीतिक हित में नहीं है इसलिए वे सरकार से बाहर हो गईं.


मायावती बदली चाल


मायावती ने रणनीति बदली और सवर्ण बहुल पार्टियों की जगह सीधे सवर्ण जातियों के साथ गठबंधन बनाना शुरू किया. कांशीराम के साथियों की नाराज़गी से बचने के लिए उनके जीते जी लखनऊ में लाल बहादुर शास्त्री मार्ग पर अपनी और कांशीराम की प्रतिमाएँ स्थापित करके स्मारक बनवाया.ब्राह्मणवाद के विरोध पर बनी कांशीराम की पार्टी में एक ब्राह्मण सतीश मिश्र अब मायावती के दाहिने हाथ कहे जाते हैं. इसके बाद कांशीराम के अनुयायियों को आश्वस्त करने के लिए उन्होंने घोषणा की कि उनका उत्तराधिकारी दलित ही होगा.कांशीराम को मसीहा मानने वाले दलित समुदाय में कसमसाहट है. मायावती का सर्वण प्रेम वे पचा नहीं पा रहे हैं. कांशीराम के बाद दलित समुदाय मायावती से कितना जुड़ा रहता है इसका फ़ैसला अगले विधानसभा चुनाव में हो जाएगा.
वर्ष 1995 में जब मायावती पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं थी तो तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने इसे 'लोकतंत्र का चमत्कार' कहा था. 'लोकतंत्र के उस चमत्कार' के 12 साल बाद एक बार फिर सत्ता मायवाती के पास आई हैं और चौथी बार ऐसा होगा जब मायावती मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगी. दलित राजनीति के नेतृत्व करने वाली मायावती ने इस बार न सिर्फ़ दलितों और मुसलमानों की सहानुभूति हासिल की बल्कि सवर्णों को भी साथ लिया और उनकी ये रणनीति ख़ूब चली. एक दशक से अधिक समय बाद ऐसा हुआ है कि टुकड़ों में बँटे उत्तर प्रदेश में किसी एक पार्टी ने अपने दम पर बहुमत हासिल किया है. कांशीराम के साथ 1980 के दशक में बहुजन समाज की राजनीति करने वाली मायावती का यहाँ तक का सफ़र न सिर्फ़ उतार-चढ़ाव से भरा रहा है बल्कि भारतीय राजनीति में उनके अक्खड़पन और बिंदास छवि का भी गवाह रहा है.
कभी स्कूल में शिक्षिका रहीं मायावती ने सिविल सर्विसेज़ में जाने की सोची थी लेकिन उनका झुकाव हुआ कांशीराम की ओर जिन्होंने 14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था.पार्टी कार्यकर्ताओं में 'बहनजी' के नाम से मशहूर मायावती का राजनीतिक करियर झटकों के साथ शुरू हुआ. 1985 में वे पहली बार लोकसभा उपचुनाव में खड़ी हुई लेकिन हार गईं. वर्ष 1987 में उन्होंने हरिद्वार से अपनी क़िस्मत आज़माई लेकिन नतीजा उनके पक्ष में नहीं रहा. लेकिन उनकी पराजय का दौर ज़्यादा समय नहीं टिका. 1989 के चुनाव में उन्होंने बिजनौर से जीत हासिल की और फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा.
पहली बार 1995 में वे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं. पहले समाजवादी पार्टी के साथ सरकार बनाने वाली मायवाती रुठीं तो फिर भारतीय जनता पार्टी का दामन थामा और 3 जून 1995 को पहली बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. यह पहला मौक़ा था जब कोई दलित महिला उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थी.प्रभु दयाल और रामरती की नौ संतानों में से दूसरी मायावती का जन्म 15 जनवरी 1956 को उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ियाबाद ज़िले के बादलपुर गाँव में हुआ था.
दिल्ली विश्वविद्यालय से क़ानून और मेरठ विश्वविद्यालय से बीएड की शिक्षा प्राप्त करने वाली मायावती को राजनीति की दीक्षा बहुजन समाज पार्टी नेता कांशीराम से मिली.दोनों पहली बार 1984 में मिले थे. तब मायावती दिल्ली प्रशासन के एक प्राथमिक विद्यालय में शिक्षिका थीं और दिल्ली के इंद्रपुरी इलाक़े की एक झुग्गी में रहती थीं.कांशीराम ने मायावती के तेवरों को धार दी और इस तरह वे दलित अधिकारों की एक मुखर प्रवक्ता के रूप में सामने आईं. थोड़े ही दिनों में वे बहुजन समाज पार्टी में दूसरी सबसे महत्वपूर्ण शख़्सियत बन गईं.
वर्ष 1995 में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री की कमान संभालने के बाद मायावती पर सिद्धांतविहीन राजनीति का आरोप लगा. इसलिए कि उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के साथ समझौता किया.लेकिन मायावती ने स्पष्ट किया कि वे दलितों को सत्ता में भागीदारी दिलाने के लिए कुछ भी करेंगी. भारतीय जनता पार्टी से उन्होंने एक नहीं दो-दो बार समझौता किया. समझौता हुआ और टूटा भी. मायावती का मोह बना और मोह टूटा भी.लेकिन उनकी राजनीति की आँच कम नहीं हुई. एक बार उत्तर प्रदेश की सत्ता में आने के बाद मायावती का राज्य की राजनीति और केंद्र की राजनीति में दख़ल कम नहीं हुआ.
राजनीति के उस दौर में मायावती की छवि सवर्णों की धुर विरोधी की रही. उस दौरान उनकी पार्टी का प्रमुख नारा था- तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार.कांशीराम के सक्रिय राजनीति से अलग होने के बाद रणनीति बनाने के मामले में भी मायावती अकेले पड़ गई. गाहे-बगाहे जीते हुए पार्टी विधायकों के टूट कर विरोधी ख़ेमे में जाने से भी मायावती को काफ़ी नुक़सान हुआ.तीन बार मुख्यमंत्री बनीं मायावती का कार्यकाल डेढ़ साल का भी नहीं रहा था. ऊपर से भ्रष्टाचार और पार्टी चंदा के नाम पर अपने विधायकों से पैसा उगाही जैसे आरोपों से मायावती का ग्राफ़ तेज़ी से नीचे गिरा.
वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने भाँप लिया था कि सिर्फ़ दलितों की राजनीति के बल पर वे सत्ता का स्वाद ज़्यादा दिनों तक नहीं चख सकती.उस साल उन्होंने सवर्णों को रिझाने की कोशिश की और नारा दिया- हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है. बीजेपी के साथ तालमेल किया और सरकार बनाने में सफल रहीं.लेकिन तीन मई 2002 से 29 अगस्त 2003 तक सत्ता में रहने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में फिर भूचाल आया. मायावती की सरकार गई, राष्ट्रपति शासन लगा, कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने लेकिन फिर विधायकों की संख्या में बाज़ी मारी मुलायम सिंह ने और सरकार बनीं.
पद छोड़ने के बाद मायावती के ख़िलाफ़ आरोपों का पिटारा खुला. भ्रष्टाचार के मामले में उनके घर छापे पड़े, संपत्ति की जाँच शुरू हुई और ताज कोरीडोर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जाँच का आदेश दिया.पार्टी के विधायक टूट कर समाजवादी पार्टी के साथ चले गए. मायावती का ग्राफ़ फिर नीचे गिरा. इस साल विधानसभा चुनाव में मायावती ने सवर्णों को साथ लेकर चलने की रणनीति को और विस्तार दिया.वे खुल कर सवर्णों के साथ आईं, रैली की और बड़ी संख्या में उन्हें टिकट भी दिया. नतीजा सामने हैं- मायावती विजेता बन कर सामने आई हैं और इस बार लगता है कि अपने दम पर वो सरकार बनाएँगी और शायद पाँच साल का कार्यकाल भी पूरा करेंगी.
वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने भाँप लिया था कि सिर्फ़ दलितों की राजनीति के बल पर वे सत्ता का स्वाद ज़्यादा दिनों तक नहीं चख सकती.उस साल उन्होंने सवर्णों को रिझाने की कोशिश की और नारा दिया- हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है. बीजेपी के साथ तालमेल किया और सरकार बनाने में सफल रहीं. लेकिन तीन मई 2002 से 29 अगस्त 2003 तक सत्ता में रहने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में फिर भूचाल आया. मायावती की सरकार गई, राष्ट्रपति शासन लगा, कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने लेकिन फिर विधायकों की संख्या में बाज़ी मारी मुलायम सिंह ने और सरकार बनीं.
पद छोड़ने के बाद मायावती के ख़िलाफ़ आरोपों का पिटारा खुला. भ्रष्टाचार के मामले में उनके घर छापे पड़े, संपत्ति की जाँच शुरू हुई और ताज कोरीडोर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जाँच का आदेश दिया.पार्टी के विधायक टूट कर समाजवादी पार्टी के साथ चले गए. मायावती का ग्राफ़ फिर नीचे गिरा. इस साल विधानसभा चुनाव में मायावती ने सवर्णों को साथ लेकर चलने की रणनीति को और विस्तार दिया.वे खुल कर सवर्णों के साथ आईं, रैली की और बड़ी संख्या में उन्हें टिकट भी दिया. नतीजा सामने हैं- मायावती विजेता बन कर सामने आई हैं और इस बार लगता है कि अपने दम पर वो सरकार बनाएँगी और शायद पाँच साल का कार्यकाल भी पूरा करेंगी.
वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने भाँप लिया था कि सिर्फ़ दलितों की राजनीति के बल पर वे सत्ता का स्वाद ज़्यादा दिनों तक नहीं चख सकती. उस साल उन्होंने सवर्णों को रिझाने की कोशिश की और नारा दिया- हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है. बीजेपी के साथ तालमेल किया और सरकार बनाने में सफल रहीं. लेकिन तीन मई 2002 से 29 अगस्त 2003 तक सत्ता में रहने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में फिर भूचाल आया. मायावती की सरकार गई, राष्ट्रपति शासन लगा, कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने लेकिन फिर विधायकों की संख्या में बाज़ी मारी मुलायम सिंह ने और सरकार बनीं.
पद छोड़ने के बाद मायावती के ख़िलाफ़ आरोपों का पिटारा खुला. भ्रष्टाचार के मामले में उनके घर छापे पड़े, संपत्ति की जाँच शुरू हुई और ताज कोरीडोर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जाँच का आदेश दिया.पार्टी के विधायक टूट कर समाजवादी पार्टी के साथ चले गए. मायावती का ग्राफ़ फिर नीचे गिरा. इस साल विधानसभा चुनाव में मायावती ने सवर्णों को साथ लेकर चलने की रणनीति को और विस्तार दिया.वे खुल कर सवर्णों के साथ आईं, रैली की और बड़ी संख्या में उन्हें टिकट भी दिया. नतीजा सामने हैं- मायावती विजेता बन कर सामने आई हैं और इस बार लगता है कि अपने दम पर वो सरकार बनाएँगी और शायद पाँच साल का कार्यकाल भी पूरा करेंगी.
वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने भाँप लिया था कि सिर्फ़ दलितों की राजनीति के बल पर वे सत्ता का स्वाद ज़्यादा दिनों तक नहीं चख सकती.उस साल उन्होंने सवर्णों को रिझाने की कोशिश की और नारा दिया- हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है. बीजेपी के साथ तालमेल किया और सरकार बनाने में सफल रहीं.लेकिन तीन मई 2002 से 29 अगस्त 2003 तक सत्ता में रहने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में फिर भूचाल आया. मायावती की सरकार गई, राष्ट्रपति शासन लगा, कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने लेकिन फिर विधायकों की संख्या में बाज़ी मारी मुलायम सिंह ने और सरकार बनीं.
पद छोड़ने के बाद मायावती के ख़िलाफ़ आरोपों का पिटारा खुला. भ्रष्टाचार के मामले में उनके घर छापे पड़े, संपत्ति की जाँच शुरू हुई और ताज कोरीडोर मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जाँच का आदेश दिया.पार्टी के विधायक टूट कर समाजवादी पार्टी के साथ चले गए. मायावती का ग्राफ़ फिर नीचे गिरा. इस साल विधानसभा चुनाव में मायावती ने सवर्णों को साथ लेकर चलने की रणनीति को और विस्तार दिया.वे खुल कर सवर्णों के साथ आईं, रैली की और बड़ी संख्या में उन्हें टिकट भी दिया. नतीजा सामने हैं- मायावती विजेता बन कर सामने आई हैं. पाँच साल का कार्यकाल भी पूरा करेंगी.

प्रतिभा देवी सिंह पाटिल


राजस्थान की राज्यपाल प्रतिभा पाटिल राष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए संप्रग-वाम गठबंधन की उम्मीदवार होंगी। समन्वय समिति की बैठक के बाद प्रतिभा के नाम की घोषणा करते हुए संप्रग प्रमुख सोनिया गांधी ने इसे भारतीय गणराज्य के 60 साल के इतिहास में ऐतिहासिक क्षण करार दिया। सोनिया ने बताया कि राष्ट्रपति पद के चुनाव में महाराष्ट्र की 72 वर्षीय इस नेता की जीत सुनिश्चित करने के लिए एक समन्वय समिति का गठन किया जाएगा। इस सिलसिले में मिलकर काम करने को लेकर उन्होंने संप्रग सहयोगियों के प्रति आभार जताया। कांग्रेस प्रमुख ने यह घोषणा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मौजूदगी में की, जिनके निवास पर वाम-संप्रग समन्वय समिति की बैठक संपन्न हुई। इस बैठक में द्रमुक प्रमुख और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करुणानिधि, वरिष्ठ वामपंथी नेता प्रकाश कारत, अबनी राय और एबी वर्धन, राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव और राकांपा अध्यक्ष शरद पवार समेत कई अहम नेताओं ने हिस्सा लिया। इस बैठक में राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस की पहली पसंद केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल, वामदलों की पसंद विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी और मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह भी उपस्थित थे। इसके साथ ही राष्ट्रपति पद के लिए कई दिनों चल रही गहमागहमी पर विराम लग गया। इससे पहले वाम दलों ने किसी महिला को उम्मीदवार बनाए जाने की वकालत की थी, साथ ही शिवराज पाटिल व कर्ण सिंह के नाम को सिरे से खारिज कर दिया था।

राष्ट्रपति पद के लिए सत्तारूढ़ दल या गठबंधन ने पहली बार किसी महिला को उम्मीदवार बनाया है। इसके साथ भारत में पहली बार राष्ट्रपति भवन में एक महिला के बैठने का रास्ता लगभग साफ हो गया है। यद्यपि इससे पहले कैप्टन लक्ष्मी सहगल राष्ट्रपति चुनाव में भाग ले चुकी है, लेकिन वह विपक्ष की उम्मीदवार थीं और चुनाव में सफल नहीं हो सकी थीं। आंकड़ों में भारी यूपीए की ओर से उम्मीदवार बन राष्ट्रपति भवन की देहरी तक पहुंच चुकी प्रतिभा देवी सिंह पाटिल इतिहास रचने के करीब मानी जा सकती हैं। अगर वे जीतीं तो देश के इस सर्वोच्च संवैधानिक पद पर पहुंचने वाली पहली महिला होंगी। साथ ही देश के सबसे संपन्न राज्य महाराष्ट्र को भी यह सम्मान पहली बार मिलेगा। आजादी के इन 60 सालों में कोई भी महिला इस सर्वोच्च पद तक पहुंचना तो दूर, उप राष्ट्रपति भी नहीं बन पाई थी। दिग्गज नेताओं की दौड़ में 'छुपा रुस्तम' साबित हुई राजस्थान की राज्यपाल प्रतिभा पाटिल का नाम जब उम्मीदवार के तौर पर सामने आया उस समय वे स्वयं राजस्थान के पर्यटन स्थल माउंट आबू में थीं और वहां से रेलगाड़ी से जयपुर लौटते समय शायद वे राजनीतिक अतीत के पन्नों को पलट इस सर्वोच्च पायदान तक पहुंचने के सफर का भी जायजा ले रही होंगी।

राष्ट्रपति पद के संभावित उम्मीदवारों की दौड़ में उनका नाम बृहस्पतिवार की शाम के पहले तक अटकलों के रूप में भी नहीं आया था। परंतु उन्होंने आज दोपहर तक सबसे आगे चल रहे अपने ही राज्य के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल को ही शिकस्त नहीं दे डाली बल्कि गठबंधन की राजनीतिक गांठों में सोमनाथ चटर्जी, प्रणव मुखर्जी, सुशील कुमार शिंदे, कर्ण सिंह, अर्जुन सिंह, मोतीलाल वोरा की उम्मीदवारी बांध डाली और अंतत: 72 वर्षीय पाटिल छुपा रुस्तम साबित हुई। पिछले लगभग तीन साल से राजस्थान के राज्यपाल का पद संभाल रहीं पाटिल राज्यसभा की उपसभापति भी रह चुकी हैं। कांग्रेस, वाम दलों और द्रमुक नेता एम करुणानिधि के बीच कई दौर की वार्ताओं के बाद भी उपरोक्त नामों में से किसी पर सहमति नहीं बन पाई थी। शाम होते-होते इस तरह के संकेत आने लगे कि इनमें से कोई भी राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार नहीं होगा। इससे पहले आरएसपी के अबनी राय ने साफ संकेत दे दिया था कि 'एक चौंकाने वाले नाम' पर सहमति बनेगी और यह चौंकाने वाला नाम अंत में प्रतिभा पाटिल का निकला।]

एक सामाजिक कार्यकर्ता और अधिवक्ता के रूप में अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत करने वाली पाटिल 1962 में पहली बार महाराष्ट्र विधानसभा के लिए चुनी गई। वह तब से लेकर 1985 तक विधायक चुनी जाती रहीं और इस बीच राज्य की उप मंत्री, कैबिनेट मंत्री और विपक्ष की नेता भी चुनी गई। महाराष्ट्र के जलगांव में 19 दिसंबर, 1934 को जन्मी पाटिल 18 नवंबर, 1986 से पांच नवंबर 1988 तक राज्यसभा में उपसभापति रही। सात जुलाई, 1965 को उनका डा. देवसिंह रामसिंह शेखावत से विवाह हुआ। उनके एक पुत्र और एक पुत्री है। वह वर्ष 1967 से 1978 महाराष्ट्र सरकार में स्वास्थ्य एवं समाज कल्याण उप मंत्री, स्वास्थ्य एवं समाज कल्याण मंत्री, समाज कल्याण मंत्री और पुनर्वास सांस्कृतिक मामलों की मंत्री रही। पाटिल जुलाई 1979 से फरवरी 1980 तक महाराष्ट्र विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी रही। जून 1985 से 1990 तक राज्यसभा सदस्य रही। वह वर्ष 1991 में अमरावती से लोकसभा के लिए निर्वाचित हुई। वह दोनों सदनों में विभिन्न कमेटियों की अध्यक्ष और सदस्य भी रहीं। पाटिल की खेलों में भी खासी रुचि है। वह अपने कालेज जीवन में टेबल टेनिस चैंपियन रही हैं और इंटर कालेज प्रतियोगिताओं में उन्होंने कई पुरस्कार हासिल किए हैं। नवंबर, 2004 में राजस्थान के राज्यपाल पद की शपथ लेने वाली पाटिल का राजनीतिक क्षेत्र के अलावा महाराष्ट्र में महिला सशक्तिकरण, गरीबी उन्मूलन, कामकाजी महिलाओं के लिए आवास गृह की स्थापना करने, गरीब बच्चों के लिए स्कूल शुरू करवाने में विशेष योगदान रहा। राजस्थान की राज्यपाल रहते हुए भी उन्होंने इन बातों पर विशेष ध्यान दिया। जलगांव के एम जे कालेज से उन्होंने एम ए किया और बाद में मुंबई के गवर्नमेंट ला कालेज से विधि स्नातक की डिग्री हासिल की। बाद में जलगांव में उन्होंने कुछ समय तक वकालत भी की। गौरतलब है कि शिवराज पाटिल के नाम पर वाम दलों को खासतौर से सख्त आपत्ति थी। वाम दलों की शर्त थी कि राष्ट्रपति पद के लिए संप्रग ऐसा उम्मीदवार लाए जिसकी धर्मनिरपेक्षता पर कोई संदेह न हो, वह राजनीतिक रूप से अनुभवी हो और साथ ही संविधान और कानून का उसे अच्छा ज्ञान हो। कई दौर की बैठकों के बाद अंतत: प्रतिभा पाटिल ही इन सब कसौटियों पर खरी पाई गई और उनके नाम पर सहमति बन गई। शेखावत परिवार में ब्याही प्रतिभा का मुकाबला अब दूसरे शेखावत यानी उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत से होने के आसार हैं। उपराष्ट्रपति शेखावत राष्ट्रपति पद के लिए राजग प्रायोजित निर्दलीय उम्मीदवार हो सकते हैं।

Thursday 14 June 2007

आज के दलित




उत्तरप्रदेश में बहुजन समाज पार्टी प्रमुख व भारत की शीर्ष दलित नेता मायावती अपने आदर्श बाबा भीमराव अंबेडकर और कांसीराम की लीक से हटकर दलितों के उत्थान को एक नई राह दिखाई है. उनकी सत्ता हासिल करने की यह सामाजिक इंजीनियरिंग दलित आंदोलन को किस राह ले जाएगी, यह अब बहस का मुद्दा बन गया है. आइए पहले आज के दलितों के हालात और उनकी सामाजिक स्थिति का अवलोकन फिर महान अंबेडकर के व्यक्तित्व व कृतित्व से गुजरते हुए मायावती के उत्तरप्रदेश सरकार बनाने तक बदल चुकी दलितों की राह को तलाशने की कोशिश करें.

आज के दलित

आज के दलित की यात्रा भंगी, चूहड़े, चमार जैसी सैंकड़ों जातियों-उपजातियों से शुरू होकर गाँधी के ‘हरिजन’ से होते हुए अंबेडकर के ‘दलित’ तक पहुँची है. एक याचक की तरह राहत माँगने वाला और दया का पात्र हरिजन मनुष्यता का अधिकार पाने के लिए संघर्षशील मनुष्य के रूप में उभरा है और यह संभव हुआ है अंबेडकर के दलित आंदोलन से, जिसकी वजह से सदियों से जड़ और गूंगे दलितों में कुछ एहसास जगा और उनकी बोली फूटी है.आज दलितों का जाति-व्यवस्था पर विश्वास दरक चुका है. भले ही यह पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ हो. भंगी से हरिजन और हरिजन से दलित तक की इस यात्रा में दलित की सबसे बड़ी उपलब्धियाँ हैं. मसलन, आत्मसम्मान यानी हीन भावना से मुक्ति पाना, अपनी पहचान बनाना, प्रतिरोध की शक्ति और आवाज़ बनकर विपरीत और बर्बर परिस्थितियों में भी हिम्मत जुटा कर उभरना.


आज की बानगी
लाख बँटा होने पर भी वह आज खैरलांजी के दलित-दमन के ख़िलाफ़ एकजुट होकर आंदोलित है, तो कानपुर के अपमान के विरुद्ध भी जूझ रहा है. आज दलित-चेतना का फैलाव अंबेडकर से बुद्ध तक हो चुका है. बुद्ध के ‘अप्प दीपो भवः’ यानी अपना नेतृत्व ख़ुद करो, उनका उत्प्रेरक बन गया है. यह एक अलग बात है कि उनका प्रतिरोध अभी इतना सक्षम नहीं कि व्यवस्था को बदल डाले. दलित समाज को डॉ अंबेडकर के बाद अगर किसी ने सर्वाधिक प्रभावित किया तो वो कांशीराम थे. उनके ‘सत्ता में भागीदारी’ के नारे ने ऐसी उड़ान भरी कि वह शहरों से गाँव तक फैल गया और दलितों का एजेंडा हर राजनीतिक दल में आ गया. इसी नारे के सहारे ख़ासकर हिंदी पट्टी में दलित न केवल सत्ता के गलियारे तक ही पहुँचे बल्कि वे सत्ता के खेल में मोहरे की बजाए खिलाड़ी बन गए हैं.


भटकाव
हालांकि हर आंदोलन की तरह दलित आंदोलन में भी भटकाव आया. उनमें सवर्णों के प्रति नफ़रत भी पैदा हुई जिससे ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ एक दलितवाद जन्मा, जो मात्र जातियों का रिप्लेसमेंट चाहता है, उसे तोड़ना नहीं चाहता. वह सामाजिक परिवर्तन, समानता, भाईचारा और आज़ादी तथा जाति तोड़ो आंदोलन से विमुख होकर अवसरवादी समझौते करने लगा और कई टुकड़ों में बँट गया. इसका एकमात्र कारण था संगठन पर व्यक्ति विशेष का हावी होना. आज का दलित नेतृत्व भी बाकी स्वर्ण समाज की तरह ही यह तय नहीं कर पा रहा है कि वह पूँजीवाद के साथ रहे या समाजवाद के.




दालित-ब्राह्मण
दरअसल, दलितों के आदर्श आज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य है. आरक्षण के सहारे वे प्रशासन के गलियारे तक पहुँचे, बड़े अधिकारी, नेता, मुख्यमंत्री भी बने. फिर भी जाति तोड़ने की बजाय जाति उन्नयन की मुहिम चल पड़ी. दलितों में दलित-ब्राह्मण पैदा हुए, जिन्होंने जाति और धर्म को मज़बूत किया. दलित समाज धर्म से भी मुक्त नहीं हो पाया. चंद अपवाद छोड़कर आज भी दलितों का बड़ा तबका वैज्ञानिक सोच और तार्किकता से कोसों दूर है. इसके बावजूद दलित स्वर एक सफल प्रतिरोधी स्वर है जो सत्ता और व्यवस्था में हस्तक्षेप करने की ताक़त रखता है. उसकी चिंता है एक अलग परंपरा-संस्कृति का निर्माण, जिसमें समानता, श्रम की महत्ता और लोकतांत्रिक मूल्यों का समायोजन हो. उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि है, "अब तो वे हार नहीं विजय का अर्थ जान गए हैं. वे मरना नहीं मानरा भी सीख गए हैं. पहले वे मरने के लिए जीते थे. अब वे ज़िंदा रहने के लिए-मरने लगे हैं."



दलित मुक्ति का आंदोलन
बाबा साहेब अंबेडकर का आंदोलन दलित मुक्ति का आंदोलन था और दलित मुक्ति से मेरा मतलब है कि वर्ण व्यवस्था के अभिशाप से दलित समाज को कैसे छुटकारा मिले. दलितों की सदियों से जो समस्या चली आ रही है, चाहे वो छुआ-छूत की हो, अशिक्षा की हो, ग़रीबी की हो, सामाजिक बहिष्कार की हो, इन सबके मूल में वैदिक धर्म था. अंबेडकर जी ने इसी वैदिक व्यवस्था पर अपने आक्रमण से आंदोलन की शुरुआत की थी.साथ ही उन्होंने दलित समाज को जाग्रत करने की नीव डाली. उनके पहले ऐसा काम गौतम बुद्ध को छोड़कर और किसी ने नहीं किया था.उन्होंने मनु-स्मृति को जलाकर अपने आंदोलन की शुरुआत की थी. महाड़ में जाकर पानी के लिए आंदोलन किया. मंदिर प्रवेश की समस्या को उठाया. उन्होंने दलितों के लिए गणेश-पूजा की माँग भी उठाया. उन्होंने दलितों को जनेउ पहनाने का भी काम किया. हालांकि वो ख़ुद धर्म में विश्वास नहीं करते थे पर दलितों की मानवाधिकार की लड़ाई में उन्होंने इन बुनियादी सवालों से काम करना शुरु किया था.



अंबेडकर जैसा कोई विकल्प नहीं
अंबेडकर का विकल्प कैसे पैदा होगा जब उनके विचार को ही नहीं अपनाया जाएगा.उस सोच से आज के दलित नेता पूरी तरह से भटक गए हैं. अंबेडकर को कोई नहीं अपनाता है. कोई सत्ता का नारा देता है तो कोई सत्ता में भागीदारी का नारा देता है और इन सबका उद्देश्य केवल राजनीतिक लाभ और उसके ज़रिए आर्थिक लाभ ही है.आज के नेतृत्व में सोच का ही अभाव है और इसीलिए जो काम बिना चुनावी राजनीति में गए अंबेडकर ने कर दिखाया उसे आज के दलित नेता बहुमत पाने या सरकार बनाने के बाद भी नहीं कर पाते.
अंबेडकर जी के अनुभवों से एक बात तो स्पष्ट तौर पर देखने को मिलती है कि जैसे ही दलित संगठित होना शुरू करते हैं, हिंदू धर्म में तुरंत प्रतिक्रिया होती है और धर्म को बचाने का जिम्मा लेने वाले तुरंत लचीलापन दिखाना शुरू कर देते हैं पर इस बात को दलित समाज का नेतृत्व नहीं अपना रहा है.खैरलांजी की घटना वैदिक काल में दलितों पर हुए अत्याचारों की पुनरावत्ति ही है जिससे यह साफ है कि वैदिक परंपरा पर हमला किए बिना दलित मुक्ति की बात करना बेमानी है.




जातीय सत्ता का दौर
मंडल आयोग से पहले तक राजनीतिक पार्टियाँ सत्ता में आती थीं. मंडल आयोग की रिपोर्ट के सामने आने के बाद से अब जातियाँ सत्ता में आती है.जातीय सत्ता का यह जो दौर है इसे दलित मुक्ति के तौर पर नहीं देखना चाहिए क्योंकि इसमें तो लोग जाति पर कब्जा करके उसे अपने स्वार्थों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. सामाजिक व्यवस्था को बदलने का अभियान, जो कि दलित राजनीति का मुख्य मुद्दा हुआ करता था, वो मुद्दा मुद्दा ही रह गया है. जातीय राजनीति से सत्ता में आने का लाभ कुछ लोगों को ज़रूर होता है. उस जाति के भी कुछ गिने-चुने लोगों को लाभ हो जाता है पर जातीय सत्ता ने न तो दलितों का कल्याण हो सकता है और न ही जाति व्यवस्था का अंत हो सकता है. आज का दलित नेता हिंदुत्व पर कोई हमला नहीं कर रहा बल्कि हिंदुत्ववादी शक्तियों के साथ समझौते का काम कर रहा है. मायावती तो हर जगह जा-जाकर बता रही हैं कि ब्राह्मण ही बड़े शोषित और पीड़ित हैं. अब तो इसी समीकरण के साथ काम हो रहा है कि कुछ ब्राह्मणों को ठीक कर लो, कुछ क्षत्रियों को मिला लो, कुछ बनियों को साथ ले लो और सत्ता में बहुमत हासिल कर लो. सत्ता की यह होड़ न तो सामाजिक मुक्ति की होड़ है और न ही सामाजिक परिवर्तन की.




पेरियार और अंबेडकर
दक्षिण में जो आंदोलन चला वो पेरियार के ब्राह्मण विरोध की उपज थी. बहुत ही सशक्त आंदोलन था पर दुर्भाग्य की बात यह है कि वो ब्राह्मण विरोधी आंदोलन ब्राह्मणवाद का विरोधी नहीं बन पाया. ब्राह्मणों की सत्ता तो ज़रूर ख़त्म हुई और पिछड़ी जातियों के नेता सामने आए पर लेकिन हिंदुत्ववादी दायरे में रहते हुए उन्हीं कर्मकांडों को वो भी मान रहे हैं जिन्हें कि ब्राह्मण मानते थे.एक दूसरे ढंग का ब्राह्मणवाद वहाँ आज भी क़ायम है.उत्तर भारत में कोई ब्राह्मण विरोधी आंदोलन नहीं चला. जो भी चला वो अंबेडकर का ही आंदोलन था. अंबेडकर के आंदोलन का प्रभाव उत्तर में ज़्यादा रहा भी पर यहाँ दलित उस तरह से सत्ता पर कब्ज़ा नहीं कर पाए जिस तरह से पिछड़े वर्ग के लोगों ने दक्षिण में किया.
दलित राजनीति का जहाँ तक प्रश्न है, दक्षिण भारत में पिछड़ों की राजनीति दलित राजनीति को निगल गई है. वहाँ तो दलित राजनीति के नाम पर कुछ नहीं है. जो भी है वो उत्तर भारत में हैं पर उसमें समझ की भी कमी है और बिखराव भी है. सही मायने में देखें तो यह अंबेडकर का दलित आंदोलन भी नहीं है और अंबेडकर की बताई हुई दलित राजनीति भी नहीं है.

Tuesday 12 June 2007

मधुमेह : कुछ देसी नुस्खे और योग

डायबिटीज अब उम्र, देश व परिस्थिति की सीमाओं को लाँघ चुका है। इसके मरीजों का तेजी से बढ़ता आँकड़ा दुनियाभर में चिंता का विषय बन चुका है। मधुमेह रोगियों के लिए कुछ देसी नुस्खे पेश किए जा रहे हैं। इनमें से किसी को भी आजमाने से पूर्व अपने चिकित्सक से राय अवश्य ले लें।
नींबू से प्यास बुझाइए
मधुमेह के मरीज को प्यास अधिक लगती है। अतः बार-बार प्यास लगने की अवस्था में नीबू निचोड़कर पीने से प्यास की अधिकता शांत होती है।
खीरा खाकर भूख मिटाइए
मरीजों को भूख से थोड़ा कम तथा हल्का भोजन लेने की सलाह दी जाती है। ऐसे में बार-बार भूख महसूस होती है। इस स्थिति में खीरा खाकर भूख मिटाना चाहिए।
गाजर-पालक को औषधि बनाइए
इन रोगियों को गाजर-पालक का रस मिलाकर पीना चाहिए। इससे आँखों की कमजोरी दूर होती है। रामबाण औषधि है शलजम
मधुमेह के रोगी को तरोई, लौकी, परवल, पालक, पपीता आदि का प्रयोग ज्यादा करना चाहिए। शलजम के प्रयोग से भी रक्त में स्थित शर्करा की मात्रा कम होने लगती है। अतः शलजम की सब्जी, पराठे, सलाद आदि चीजें स्वाद बदल-बदलकर ले सकते हैं।
जामुन खूब खाइए
मधुमेह के उपचार में जामुन एक पारंपरिक औषधि है। जामुन को मधुमेह के रोगी का ही फल कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि इसकी गुठली, छाल, रस और गूदा सभी मधुमेह में बेहद फायदेमंद हैं। मौसम के अनुरूप जामुन का सेवन औषधि के रूप में खूब करना चाहिए। जामुन की गुठली संभालकर एकत्रित कर लें। इसके बीजों जाम्बोलिन नामक तत्व पाया जाता है, जो स्टार्च को शर्करा में बदलने से रोकता है। गुठली का बारीक चूर्ण बनाकर रख लेना चाहिए। दिन में दो-तीन बार, तीन ग्राम की मात्रा में पानी के साथ सेवन करने से मूत्र में शुगर की मात्रा कम होती है।
करेले का इस्तेमाल करें
प्राचीन काल से करेले को मधुमेह की औषधि के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है। इसका कड़वा रस शुगर की मात्रा कम करता है। मधुमेह के रोगी को इसका रस रोज पीना चाहिए। इससे आश्चर्यजनक लाभ मिलता है। अभी-अभी नए शोधों के अनुसार उबले करेले का पानी, मधुमेह को शीघ्र स्थाई रूप से समाप्त करने की क्षमता रखता है।
मैथी का प्रयोग कीजिए
मधुमेह के उपचार के लिए मैथीदाने के प्रयोग का भी बहुत चर्चा है। दवा कंपनियाँ मैथी के पावडर को बाजार तक ले आई हैं। इससे पुराना मधुमेह भी ठीक हो जाता है। मैथीदानों का चूर्ण बनाकर रख लीजिए। नित्य प्रातः खाली पेट दो टी-स्पून चूर्ण पानी के साथ निगल लीजिए। कुछ दिनों में आप इसकी अद्भुत क्षमता देखकर चकित रह जाएँगे।
चमत्कार दिखाते हैं गेहूँ के जवारे
गेहूँ के पौधों में रोगनाशक गुण विद्यमान हैं। गेहूँ के छोटे-छोटे पौधों का रस असाध्य बीमारियों को भी जड़ से मिटा डालता है। इसका रस मनुष्य के रक्त से चालीस फीसदी मेल खाता है। इसे ग्रीन ब्लड के नाम से पुकारा जाता है। जवारे का ताजा रस निकालकर आधा कप रोगी को तत्काल पिला दीजिए। रोज सुबह-शाम इसका सेवन आधा कप की मात्रा में करें।
अन्य उपचार
नियमित रूप से दो चम्मच नीम का रस, केले के पत्ते का रस चार चम्मच सुबह-शाम लेना चाहिए। आँवले का रस चार चम्मच, गुडमार की पत्ती का काढ़ा सुबह-शाम लेना भी मधुमेह नियंत्रण के लिए रामबाण है।
मोटा खाएं मस्त रहें
मोटे अनाज न सिर्फ स्वास्थ्य के लिए बेहतर हैं बल्कि इनके इस्तेमाल से दिल की बीमारी कैल्शियम की कमी और कई तरह की बीमारियां आप के पास भी नहीं फटक पातीं। देहाती भोजन समझ कर जिन मोटे अनाजों को रसोई से कभी का बाहर किया जा चुका है, अब वैज्ञानिक शोध से बार-बार उनकी पौष्टिकता सिद्घ हो रही है। भारतीय खाद्य एवं चारा विभाग की फसल विज्ञानी डा. उमा रघुनाथन के मुताबिक धान और गेहूं की अपेक्षा छोटे खाद्यान्न जैसे मड़ुआ, कोदो, सावां तथा कुटकी आदि की पौष्टिकता अधिक है। इस संबंध में डा. उमा का शोधपत्र आईसीएआर की अनुसंधान पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। अनुसंधान ने दिखाया है कि परंपरागत तौर से रसोई घर से बाहर की कर दिए गए मोटे अनाज दिल की बीमारी, मधुमेह तथा डियोडिनम अल्सर से लड़ने में सहायक है। यही नहीं, सामान्य गेंहूं में जहां साल 2 साल में घुन लग जाता है वहीं मड़ुआ का दाना 2 दशक तक ज्यों का त्यों बना रहता है।
शुगर फ्री से घुल न जाए कडुवाहट
चॉकलेट, मिठाई, आईसक्रीम व सॉफ्ट ड्रिंक जैसी चीजों पर 'शुगर फ्री' लिखा देखकर गुमराह न हों, क्योंकि इनका लगातार इस्तेमाल न सिर्फ मधुमेह के स्तर व मोटापे की समस्या को बढ़ा सकता है, बल्कि सिरदर्द, पेट दर्द, अनिद्रा व चिड़चिड़ापन जैसी समस्याएं भी हो सकती हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि शुगर फ्री के नाम पर धड़ल्ले से परोसी जा रही इन चीजों में सिर्फ चीनी के इस्तेमाल से परहेज किया जाता है, दूध, खोया, घी जैसे फैट व कैलोरी के अन्य कंटेंट वही होते हैं, जो आम उत्पादों में इस्तेमाल किए जाते हैं। ऐसे में 'शुगर फ्री है, तो नुकसान नहीं करेगा' इस भ्रम में मधुमेह ग्रस्त लोग इन चीजों का मुक्त रूप से इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं, जो कि काफी घातक साबित होता है। उल्लेखनीय है कि चॉकलेट, आईसक्रीम, मिठाई, कोल्ड ड्रिंक जैसी जिन चीजों से मधुमेह रोगियों को परहेज करने के लिए कहा जाता है, कंपनियां उनके शुगर फ्री उत्पाद बाजार में लेकर आ जाते हैं, जिनका दावा होता है कि इनके इस्तेमाल से मधुमेह रोगियों को कोई समस्या नहीं होगी। आजकल शादी-विवाह व जन्मदिन आदि की पार्टियों में भी शुगर फ्री उत्पादों को परोसना फैशन ट्रेंड बन गया है और मधुमेह पीड़ित लोग भी बेफिक्र होकर इनका इस्तेमाल करते हैं। दिल्ली डायबिटिक रिसर्च सेंटर की ओर से किए गए अध्ययन में पाया गया कि शुगर फ्री उत्पादों का इस्तेमाल करने वाले लोगों के मुंह का स्वाद खराब रहने, माइग्रेन, पेट संबंधी दिक्कतें, चिड़चिड़ापन व इनसोमनिया जैसी समस्याएं आम होती हैं।
कपाल भाति से दूर होते हैं संपूर्ण रोग
यदि प्रत्येक व्यक्ति कपाल भाति प्राणायाम करता रहे तो वह संपूर्ण रोगों से मुक्ति पा सकता है। कपाल भाति प्राणायाम के निरंतर अभ्यास करने से मस्तिष्क व मुख मंडल पर तेज, आभा व सौंदर्य बढ़ता है साथ ही हृदय, फेफड़ों एवं मस्तिष्क के सभी रोग दूर होते है। मोटापा, मधुमेह, गैस, कब्ज, अम्लियत आदि के विकार दूर होते है यदि मनुष्य कपाल भाति प्राणायाम करता रहे तो शरीर निरोग रहता है। भ्रामरी प्राणायाम अनेक रोगों को दूर करता है। यह प्राणायाम आंख, कान, बालों के लिए काफी लाभदायक है इसके अलावा इससे मिरगी के चक्कर आना, हाथ, पैरों के सुनापन आदि बीमारियों में यह योग महत्वपूर्ण है। यह प्राणायाम बुद्धि वर्धक भी है। रोजाना इसे 3-4 मिनट तक करने से बुद्धि का विकास होगा व स्मरण शक्ति भी बढ़ेगी।
प्राणायाम और आसन
लखनऊ: योग गुरु स्वामी रामदेव यहां अम्बेडकर मैदान जेल रोड में हुए योग शिविर में साधकों को प्राणायाम और आसन कराने के साथ ही इनकी खासियत भी बतायी। जीवन के रूपांतरण की सप्त प्रणायाम की क्रियाओं के सम्पूर्ण आरोग्य देने का जिक्र करते हुए स्वामी रामदेव ने भस्त्रिका प्राणायाम के बारे में बताया कि लम्बा गहरा श्वास फेफड़ों में ढाई सेकेंड में भरो और ढाई सेकेंड में ही छोड़ो। सामान्य तरह से अधिकतम पांच मिनट और कैंसर या किसी अन्य समस्या से ग्रस्त व्यक्ति को इसे 10 मिनट तक करना चाहिए। यानी सामान्यत: 50 से 60 बार और जटिलता में सौ बार यह प्रक्रिया दोहरानी है। उन्होंने बताया कि कपाल भांति एक सेकेंड में एक बार करो। औसतन इससे एक झटके में एक ग्राम वजन कम होता है। कैंसर ल्यूकोडर्मा में कपालभांति 15 की जगह 30 मिनट तक बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि भस्त्रिका अगर अर्जन है कपालभांति विसर्जन। यह क्रिया 15 मिनट में नौ सौ होनी चाहिए। असाध्य रोगों में 18 सौ से दो हजार बार दोहराई जानी चाहिए। गहरा श्वास लेकर बाहर छोड़कर वाह्य प्राणायाम की क्रिया को तीन से पांच बार करने की सलाह देते हुए उन्होंने अनुलोम-विलोम प्राणायाम के बारे में बताया कि इसे एक चक्र में अधिकतम पांच मिनट करें और सामान्य रूप में कुल समय 15 मिनट और असाध्य रोगों की स्थिति में 30 मिनट दें। होंठ बंदकर ओंकार का गुंजन करने वाले भ्रामरी के साथ ही उन्होंने उद्गीत और प्रणाम प्राणायाम का जिक्र किया। साथ ही सहायक प्राणायाम उज्जायी के बारे में बताया कि यह गले और थायरायड की समस्याओं में लाभप्रद है। उन्होंने कहा कि सबसे बड़ी शक्ति संकल्प की, विचार की और विश्वास की है। प्राणायाम यह सोचकर करो कि मैं बीमार नहीं हूं। उन्होंने कहा कि अतिपोषण और कुपोषण दोनों बीमारी का कारण हैं। अब तक अन्नमय कोष को खूब पोषित किया है, अब कमजोर पड़ते मनोमय, ज्ञानमय और आनन्दमय कोष को प्राणायाम से पोषित करो। प्रज्ञा का विस्तार होगा। प्राणायाम, सूक्ष्म व सम्पूर्ण व्यायाम के साथ उंन्होंने योग आसन के विषय में कहा कि जितनी भी संसार में आकृतियां हैं, पशु पक्षी हैं, उतने ही आसन हैं। लिहाजा सब आसन हमें नहीं करने, हमें सिर्फ वही योग करना है जो हमें निरोग बनाता हो। उन्होंने भुजंग, मर्कट, वज्र और सिंह आसन भी कराये।
कम खाएँ ज्यादा जिएँ
यदि आप कम खाते हैं, तो आप ज्यादा समय तक जिंदा रहेंगे। एक नए अध्ययन में ये बात सामने आई है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि बहुत कम खाना शुरू कर दिया जाए, जो जीवन ही समाप्त कर दे। 1930 में यह पाया गया कि प्रयोगशाला में रहने वाले जीव कम कैलोरी वाले पदार्थ खाते हैं और लंबे समय तक जीवित रहते हैं। इन लोगों को कैंसर, मधुमेह और हृदयाघात जैसी शिकायतें कम ही होती है। परंतु फिर भी अभी तक इसके प्रमाण कम ही थे कि कम खाने वाले ज्यादा समय तक जिंदा रहते हैं। अब एन्ड्रयू डिलिन ने केलिफोर्निया के ला जोला स्थित साल्क इंस्टीट्यूट फॉर बायलॉजिकल स्टडीज में अध्ययन में एक जीन का पता किया है। इसका सीधा संबंध मनुष्य के जीवन से होता है। यह भी बात स्पष्ट रूप से सामने आई कि यदि कैलोरी सीमित कर दी जाए तो इससे जीवन अवधि ब़ढ़ सकती है। शोध दल ने पाया कि शरीर पीएच-4 नाम की जीन होती है, जो मनुष्य में विकास के लिए जिम्मेदार होती है। परंतु वयस्कों में ये कैलोरी के साथ कार्य करती है। मनुष्य में पीएचए-4 के समान तीन जीन और भी होती हैं। ये जीन ग्लूकागॉन से संबंधित रहती है। इसका संबंध पेनक्रियाज के हार्मोन से बना रहता है। यही शरीर में रक्त शर्करा को ब़ढ़ाता है और शरीर का संतुलन बनाए रखता है, विशेष रूप से उपवास आदि के दौरान। इसकी जानकारी स्वास्थ्य पोर्टल न्यूज मेडिकल में दी गई है।

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...