Monday 23 July 2007

पत्र मिला पर क्या गांधीवाद की वापसी भी होगी !

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
गांधी के जिस हस्तलिखित पत्र की नीलामी स्थगित कर दी गई थी अब वह भारत सरकार को मिल गई है. इसकी नीलामी होनी थी लेकिन नीलामी आयोजित करने वाली कंपनी क्रिस्टीज़ ने यह कहते हुए नीलामी रोक दी थी कि इस राष्ट्रीय धरोहर को भारत सरकार हासिल करना चाहती है.महात्मा गांधी ने यह पत्र अपनी हत्या से 19 दिन पहले लिखा था और एक स्विस संग्रहकर्ता के संग्रह में यह चिट्ठी थी जिसे नीलाम करने की क्रिस्टीज़ ने घोषणा की थी.क्रिस्टीज़ ने कहा था कि उसे इस बात की ख़ुशी है कि उसने पत्र के मालिक और भारत सरकार के बीच एक समझौता करा दिया है जिसके तहत पत्र भारत को मिल जाएगा.लेकिन भारत सरकार या क्रिस्टीज़ ये बताने को तैयार नहीं है कि इस पत्र को हासिल करने के लिए भारत सरकार ने कितनी रक़म अदा की.माना जा रहा है कि इस पत्र पर नौ हज़ार से 12 हज़ार पाउंड के बीच की बोली लगाई जाती यानी 10 लाख रुपए तक इसकी क़ीमत हो सकती थी.गांधी जी का पत्र एल्बिन श्राम कलेक्शन का हिस्सा था जिसमें सिगमंड फ्रायड, विंस्टन चर्चिल, चार्ल्स डिकिंस, आइजैक न्यूटन जैसी हस्तियों के लिखे पत्र शामिल हैं.एल्बिन श्राम चेक गणराज्य में 1926 में पैदा हुए थे, वे ऑस्ट्रियाई माता-पिता की संतान थे और स्विट्ज़रलैंड में रहते हुए उन्होंने इन चिट्ठियों का संग्रह किया था.



गांधी के लौटने की बातें छोड़ो

यह धारणा बनाई जा रही है कि महात्मा गांधी के प्रति भारत में नई रुचि पैदा हो रही है. लोग उन सब बातों को याद कर रहे हैं जो गांधी ने कहीं थीं और लोग अब उनके क़दमों पर चलना चाह रहे हैं.हाल ही में एक अख़बार ने सर्वेक्षण करवाया और बताया कि देश में 46 प्रतिशत लोग गांधी को सबसे बड़ा ब्रांड एम्बेसडर मानते हैं.जो अख़बार बाज़ार के लिए निकल रहे हैं, उनके लिए ब्रांड बड़ी चीज़ है. विचार, आदर्श और सिद्धांत का उनके लिए कोई मतलब नहीं है.किसी विचार या सिद्धांत को ब्रांड में बदलना उसे बाज़ार की चीज़ बनाना है.पूरे संसार को बाज़ार बनाकर मनुष्य के समाज को नहीं चलाया जा सकता. ऐसा गांधी जी ने भी कहा था और उनसे पहले के जितने विचारक हुए हैं, उन्होंने भी कहा था.


खड़े बाज़ार में..


आज किसी भी प्रकार से गांधी को बाज़ार के अनुरुप बनाने की कोशिश क्यों हो रही है.100 साल तक भारत का मध्यवर्ग इस अपराध बोध में रहा है कि जो कुछ हमारे पास खाने और मौज उड़ाने के लिए है वह हमारे देश के और लोगों के पास नहीं है और खाते, कमाते और मौज करते हुए भी उसे यह अपराधबोध था कि वह देश के सब लोगों को सुलभ नहीं है.इसलिए गांधी के पहले, मार्क्स के असर से भी पहले हमारे भक्तकवियों ने ग़रीब को समाज का पैमाना बनाकर चलाने की कोशिश की.स्वामी विवेकानंद ने क्या कहा, दरिद्र नारायण, महात्मा गांधी ने कहा कि जब तक उस आख़िरी आदमी को कुछ नहीं मिलेगा, मैं कुछ नहीं लूँगा.इस अपराधबोध में समाज का मध्यवर्ग ग़रीब और ग़रीबों के बारे में सोचता था. आज़ादी की लड़ाई का पूरा नेतृत्व मध्यवर्ग से ही आया था और वह इस अपराधबोध का निवारण करना चाहता था.इसलिए आज़ादी की पूरी लड़ाई के केंद्र में सबसे ग़रीब और सत्ताविहीन व्यक्ति था. यह सिर्फ़ गांधी का ही सपना नहीं था, कम्युनिस्टों का भी यही सपना था और क्रांतिकारियों का भी यही सपना था.आज़ादी की लड़ाई का सबसे बड़ा नारा था, धन और धरती बँटकर रहेगी. यानी पूरी 19वीं और 20वीं सदी आख़िरी आदमी को सत्ता पर बैठाने की सदी थी.लेकिन 21वीं सदी की शुरुआत में आप किसकी बात करते हैं, आप प्रेमजी की बात करते हैं कि वह सबसे अमीर भारतीय है, आप लक्ष्मीनारायण मित्तल की बात करते हैं कि वह दुनिया के रईसों में तीसरे नंबर पर है. आज अचानक इस देश में पैसे वालों की बात होने लगी है.इसलिए इस देश का मध्यवर्ग, जो इस देश की आत्मा और चेतना की रक्षा करता था, एक तरह के वंचित होने की हीन भावना से ग्रसित हो गया है.अब मध्यवर्ग सोचने लगा है कि दुनिया के अमीर लोग इतने सुख भोग रहे हैं और मैं इस जाहिल देश के कारण अपनी योग्यता के अनुरुप भी नहीं कमा पा रहा हूँ.एक तरह की होड़ शुरु हो गई है और यह होड़ बाज़ार ने शुरु की है.गांधी इस बाज़ार और इस होड़ के ख़िलाफ़ थे और उन्होंने अपनी बात साफ़-साफ़ ढंग से 1909 में हिंद स्वराज में कही थी.गांधी उद्योग आधारित अर्थव्यवस्था के ख़िलाफ़ थे और चाहते थे कि गाँवों के प्राथमिकता दी जाए. लेकिन अब तो सरकार 12 प्रतिशत विकास दर हासिल करने के लिए कोई भी और कैसी भी रियायतें उद्योग और व्यवसाय को देने को तैयार है.



बंद रस्ते


जहाँ तक गांधी के लौटने का सवाल है तो उनके लौटने के रास्ते तो उस वक़्त भी खुले नहीं थे, जब ख़ुद गांधी मौजूद थे.उन्होंने 1909 में लॉर्ड एम्टिल को एक चिट्ठी लिखी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि मैंने अब तक एक भारतीय नहीं देखा जो यह मानता हो कि अहिंसा से इस देश को आज़ाद किया जा सकता है.अहिंसा की बात उन्होंने तब की जब 1914 से 1918 तक प्रथम विश्व युद्ध और 1939 से 1944 तक द्वितीय विश्व युद्ध की भीषण हिंसा को इस दुनिया ने देख लिया. यानी हिंसा के चरम पर वे अहिंसा की बात कर रहे थे.जब उद्योगवाद चरम पर था जब वे कहते थे कि यह एक शैतानी व्यवस्था है. मनुष्य के मनुष्य द्वारा शोषण पर आधारित है. इसमें न्याय नहीं होगा, इसमें विषमता बढ़ेगी.जब गांधी कह रहे थे, तब भी अहिंसा के लिए गुंजाइश नहीं थी. जब गांधी लड़ रहे थे तब भी विकेंद्रित व्यवस्था और विकेंद्रित वितरण व्यवस्था के लिए गुंजाइश नहीं थी.फिर भी गांधी इन दोनों बातों पर टिके रहे. अगर आज आप सच्चाई से देखेंगे तो पाँएगे कि गांधी ठीक कह रहे थे.1945 में गांधी के सिद्धांतो के अनुरुप ही संयुक्त राष्ट्र ने कहा कि बातचीत से ही सारे मामले सुलझाए जाएँ और युद्ध कोई निवारण नहीं हो सकता. हर देश ने उस पर दस्तख़त किए.वही हाल साम्राज्यवाद और नए साम्राज्यवाद का भी है.मेरा निवेदन है कि गांधी लौटकर आएगा या गांधीवाद लौटकर आएगा ये बातें हमें छोड़ देनी चाहिए.हमें सोचना चाहिए कि असमानता और अन्याय आज भी उतना ही है जितना की गांधी के ज़माने में था.गांधी जी ने इससे लड़ने का एक मानवीय तरीक़ा दिया था जिसमें न हथियार उठाने की ज़रुरत है और न किसी को दुश्मन बनाने की. इसमें साफ़ है कि मैं सबको अपने विचारों से सहमत करने में लगा हुआ हूँ. हृदय परिवर्तन करने में लगा हुआ हूँ.उसी प्रकार से संसाधनों के समान या न्यायिक वितरण का सवाल उतना ही बड़ा है जितना कि कल था.आज आप गांधी की फिर से व्याख्या करके इन दोनों लड़ाइयों को फिर से शुरु कर सकते हैं.ज़रुरी नहीं कि गांधी का नाम लें या ज़रुरी नहीं कि आप कहें कि मैं गांधी के रास्ते पर चलूँगा.इसलिए गांधी की वापसी का सवाल ही अप्रासंगिक लगता है.गांधी की वापसीआम लोगों की तरह मोहनदास करमचंद गांधी ने अपने माता-पिता के दिए इसी नाम से साथ जीवन शुरू किया था.इसी के साथ उन्होंने बैरिस्टरी पास की. दक्षिण अफ्रीका गए. वकालत शुरू की. वकालत चल निकली. गांधी कामयाब वकील बन गए. यह एक प्रतिभाशाली युवा वकील की कामयाबी थी.उस ज़माने में अदालती दाँवपेंच से गांधी को पाँच हज़ार पाउंड सालाना की आमदनी होती थी. यह रकम बहुत बड़ी थी. अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1905-06 में एक पाउंड में सात तोला सोना मिलता था. यानी कि गांधी न केवल कामयाब थे बल्कि लखपती भी थे.निहत्था विरोधगांधी को यह सब मिलकर भी कुछ न मिला हुआ लगता था. बतौर बैरिस्टर गले में टाई और तीन पीस सूट गांधी पर फबता था, पर उन्हें जँचता नहीं था.उनका मन कहीं और था. उनका विरोध साम्राज्यवाद की दमनकारी नीतियों से था. मन में कल्पना थी उस ताक़तवर शक्ति को हाथ उठाए बिना परास्त करने की.बात लोगों को ज़्यादा समझ में नहीं आई. ताक़त के आगे निहत्था विरोध.कुछ को यह तजवीज़ हास्यास्पद लगी. कुछ को अनूठी. गांधी ने जोहानसबर्ग की एंपायर थिएटर बिल्डिंग भाड़े पर ली. पैसे अपनी जेब से भरे.तारीख़ तय की 11 सितंबर 1906. लोगों को आमंत्रित किया. एक शपथ-पत्र भरने को कहा. यह कि वे अहिंसा का रास्ता अपनाकर श्वेत साम्राज्यवादी शक्ति का विरोध करेंगे.उस समय तक इस प्रतिरोध का कोई औपचारिक नाम नहीं था. गांधी ने कई नाम सोचे, पर वे संतुष्ट नहीं थे. अंत में उन्होंने एक प्रतियोगिता आयोजित की. प्रतिरोध का नामकरण करने की. इसका नाम अंत में ‘सदाग्रह’ चुना गया. गांधी ने उसे बदलकर ‘सत्याग्रह’ किया.तब तक वे इसे ‘जीने और मरने की कला’ कहते थे.परिवर्तनशील व्यक्तित्वगांधी का व्यक्तित्व शुरू से परिवर्तनशील रहा. चाहे वह पोशाक का मामला हो, भोजन का या सोच का.कई बार गांधी के आस-पास लोगों ने इस बदलाव में भूमिका निभाई. कई बार परिस्थितियों ने.गांधी ने ऐशोआराम की ज़िंदगी हासिल करके छोड़ दी. सत्याग्रह के लिए. साम्राज्यवाद के विरोध में. भारत लौटे तो बैरिस्टर गांधी को पीछे छोड़ आए. कपड़े एक-एक कर कम होते गए. बाना संतों जैसा हो गया.आज़ादी के बाद आई पीढ़ी को गांधी के बिंब पुराने ज़माने के लगे. चरखा, तकली, सूत, खादी. शायद उन्हें लगा कि विरोध के ये हथियार नए ज़माने में कारगर नहीं होंगे.उन्होंने सब छोड़ दिया या उसकी ओर ध्यान नहीं दिया. उन्होंने प्रतीक देखे, उसके पीछे भी भावना नहीं देखी.गांधी की वापसीसत्याग्रह को हथियारों की होड़ और सबसे ताक़तवर बनकर उभरने की इच्छाओं के कारगर प्रतिकार का तरीका नहीं माना. लेकिन गांधी की वापसी हुई.इतनी ज़ोरदार वापसी की हाल के इतिहास में दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती.नई पीढ़ी की गांधी में दिलचस्पी की वजहें कम दिलचस्प नहीं हैं. आधुनिकतम शिक्षा से लैस, टेक्नालॉजी में दक्ष और वैज्ञानिक सोच के हामी ये युवा इससे ऊपर कुछ और चाहते हैं. ज़िंदगी को नया अर्थ देना. मानीखेज बनाना. ऐसे में उनके सामने गांधी आ खड़े होते हैं.नई पीढ़ी शायद गांधीवाद को बेहतर समझ पा रही है.उसे अपने सवालों के जवाब गांधी के पास आसानी से मिल जाते हैं. गांधी उसे पुरातनपंथी नहीं लगते.गांधी की वापसी सारी दुनिया में हो रही है. वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद बहुत तेज़ी के साथ.1995 में पाँचवीं कक्षा में मैंने बच्चों से गांधी के बारे में पूछा. एक भी छात्र गांधी के बारे कुछ न बता सका. उन्हें गांधी का पूरा नाम भी नहीं मालूम था.मैं उस घटना से बहुत निराश था. ख़ासतौर पर इसलिए कि वह स्कूल गुजरात में था. इसलिए भी कि गांधी उस गाँव में एक रात रुक चुके थे.लौटकर मैंने यह वाक़या गांधी के पौत्र रामचंद्र गांधी को सुनाया.प्रोफेसर रामू गांधी ने कहा, ‘‘मृत्यु सच नहीं है. उपस्थिति का अभाव मृत्यु है. विचार कोई इमारत, पेड़, पहाड़ नहीं है. वह अनुपस्थित रहकर उपस्थित रहता है. उसकी मृत्यु नहीं होती. गांधी लौटेंगे.’’11 साल बाद रामू गांधी की बात सही साबित हुई.गांधी के सत्याग्रह की शताब्दी पर एक सर्वेक्षण कराया गया. राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण. यह पता लगाने के लिए कि 21वीं सदी में गांधी के विचार कितने उपयोगी रह गए हैं. गांधी को लोग किस रूप में देखते हैं. ख़ासकर युवा.19 राज्यों में लोगों से सवाल पूछे गए. सबकी उम्र 30 साल से कम. सर्वेक्षण के नतीजे चौंकाने वाले थे.80 प्रतिशत से अधिक युवा गांधी के बारे में जानते थे. और अधिक जानना चाहते थे. 75 फीसदी गांधी पर कुछ न कुछ पढ़ चुके थे. इससे एक प्रतिशत अधिक युवा उन्हें अपना आदर्श मानते थे.युवाओं के आदर्शों की लंबी सूची में गांधी सबसे ऊपर थे. यह निश्चित रूप से गांधी का लौटना है.बकौल किशन पटनायक दुनिया विकल्पहीन कभी नहीं रही. गांधी सार्थक विकल्प की तरह अब पहले से भी अधिक ज़रूरी हैं.युवावर्ग का गांधी की ओर झुकाव ऐसे भविष्य की ओर इशारा है जिसकी ज़रूरत आने वाली नस्लों को हमसे ज़्यादा होगी.क्यों ग़लत लग रही है गाँधी की सीखमौजूदा समय में जिससे भी पूछो कि महात्मा गाँधी की कितनी आवश्यकता है तो जवाब मिलता है कि गाँधी की आज भी उतनी ही ज़रूरत है जितने उनके दौर में थी.यदि ऐसा है तो फिर क्या वजह है कि गाँधी के विचारों और इन विचारों पर आधारित संस्थाओं का पतन हो रहा है?बाक़ी जगह तो दूर रही, यह चीज़ गुजरात में भी बहुत हद तक देखने में आ रही है.वो गुजरात जिसे गाँधी का गुजरात कहा जाता है, क्योंकि गाँधी यहीं से थे, चाहे वो हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों की बात हो, चाहे दलित उत्थान का मामला हो, गाँधी के समाजवाद का मसाला हो या फिर शराब-बंदी हो,हर जगह ठीक गाँधी की सीख के विपरीत हो रहा है.आखिर ऐसा क्यों हुआ? इस सवाल के जवाब बहुत से हैं. पड़तालबुजुर्ग गाँधावादी चुन्नीभाई वैद्य तो मानते हैं लोगों ने सिर्फ गाँधी के नाम को जिंदा रखा और उनके मूल्यों से मुँह फेर लिया.वे कहते हैं,"हमको सरकार ने अनुदान दिया तो हमारा चरित्र अनुदान के साथ बंट गया. हम लोग खादी तो बनाते और बेचते रहे और जो गाँधी का एक किरदार था, सामाजिक क्रांतिकारी का, एक सीख थी कि समाज में क्रांति चलती रहनी चाहिए, उसे हम भूल गए."चुन्नीभाई कहते हैं,"सन 2002 के दंगों के बाद तो बहुत लोग बड़े फ़ख़्र से कहते हैं कि अब वो गाँधी के फ़लसफ़े से बाहर आ गए हैं और कायर नहीं रहे, गाँधी का अर्थ ग़लत समझते हैं." उनके शब्दों में,"दुर्भाग्यवश यह माना जा रहा है कि क्रांति का मतलब हिंसा है किसी को मार देना क्रांति है. क्रांति का सही मतलब तो मूल्यों का परिवर्तन होता है."गाँधीवाद के अध्ययनकर्ता रिज़वान क़ादरी इस विचार के हैं कि गाँधी के, जोश, उनके जैसे और उनके मक़सद को भूलाया जा चुका है. वे मानते हैं कि गाँधी की शहादत के बाद गाँधी की विचारधारा और उसमें मनाने वालों का अंत होता गया. पीढ़ियों का अंतररिज़वान क़ादरी मानते हैं कि एक पीढ़ी खत्म होती गई और नई पीढ़ी अपने ही माहौल में खोई रही. क़ादरी कहते हैं,"उन्होंने उस जंग को नहीं देखा था, उस गुलामी को नहीं देखा था. तो आने वाली तीसरी पीढ़ी को पता नहीं था कि गाँधीवाद क्या था, वो मर मिटने और सरफरोशी की तमन्ना क्या थी. इसलिए धीरे-धीरे उस संस्था का ख़ात्मा होने लगा."क्या नवयुवकों के हाथ में गाँधीवादी संस्थाओं का नेतृत्व सौंपने से कुछ फर्क पड़ेगा? भाजपा नेता जयंती बरोट कुछ ऐसा ही मानते हैं. उनका कहना है,"गाँधी की सोच वाली संस्थाएं नए खून नई नए नौजवानों को साथ लेकर नहीं चलते हैं. मेरे दादा की उम्र के लोग ये संस्थाएं चला रहे हैं, इसलिए संस्थाएं उनकी उमर के साथ घिसती जा रही हैं." घर की मुर्गीबरोट कहते हैं कि अगर इन इरादों में युवा पीढ़ी को जोड़ा जाए तो बहुत बदलाव देखने में मिलेगा.कुछ लोगों का यह भी मानना है कि चूँकि गाँधी गुजरात और भारत से थे, इसलिए उनकी अहमियत का अंदाज़ा आम आदमी को नहीं है. अहमदाबाद के कलाकार अरविंद पटेल कुछ ऐसा ही मानते हैं. पटेल का कहना है,"कई बार हम अपनी अच्छी चीज़ को पहचान नहीं पाते.वो कहावत है कि घर की मुर्गी दाल बराबर. इसलिए बहुत बार हम अनजाने में अपनी अच्छी चीज़ को अनदेखा कर जाते हैं."इन तमाम विचारों के बावजूद लोग यह मानते हैं कि कुछ समय बाद ही सही पर एक बार फिर ऐसा वक़्त आएगा जब संसार एक बार फिर गाँधी की ओर समस्याओं के समाधान के लिए देखेगा.चर्चिल की मंशा थी, 'गांधी मरें तो मरें'ब्रितानी कैबिनेट के हाल ही में प्रकाशित कागज़ातों से विंस्टन चर्चिल की उस मंशा का पता चलता है जिसके मुताबिक वो चाहते थे कि गांधी अगर भूख हड़ताल पर बैठते हैं तो उन्हें मरने देना चाहिए.ऐसे कागज़ातों की एक प्रदर्शनी इन दिनों लंदन स्थित केव अभिलेखागार में चल रही है.दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे चर्चिल का मानना था कि महात्मा की छवि वाले गांधी अगर अंग्रेज़ी हुकूमत की गिरफ़्त में भूख हड़ताल पर बैठते हैं तो उनके साथ भी आम लोगों जैसा बर्ताव होना चाहिए.हालाँकि उनके मंत्रियों ने उन्हें ऐसा न होने देने के लिए समझाया क्योंकि अगर गांधी की मृत्यु अंग्रेज़ी हुकूमत की गिरफ़्त में हो जाती तो वह एक बड़ी शहादत बन जाएगी.गाँधी ने 1942 के विश्वयुद्ध में भारत को शामिल करने का विरोध किया था जिसके बाद उन्हें हवालात में डाल दिया गया था.पक्ष और विपक्षब्रिटेन शासित भारत के तत्कालीन वायसरॉय, लॉर्ड लिनलिथगो ने भी कहा था कि वो "मज़बूती के साथ गांधी के भूख से मरने की स्थिति के पक्ष में हैं."पर कई वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों ने इस कद़म को ग़लत ठहराया. पूर्व विदेश सचिव लॉर्ड हैलिफ़ैक्स ने तर्क रखा, "गांधी को मुक्त करने के चाहे जो भी नुक़सान हों पर उनको बंद रखना और भी ज़्यादा संकट पैदा कर सकता है."वर्ष 1943 के जनवरी महीने में अधिकारियों ने तय किया कि गांधी को छोड़ दिया जाए, पर लोगों की नज़र में यह क़दम अंग्रेज़ों की सहानुभूति के रूप में सामने आना चाहिए ना कि दबाव के आगे अंग्रेज़ों के झुकने के जैसी.हवाई जहाज़ निर्माण विभाग के तत्कालीन मंत्री सर स्टैफ़ोर्ड क्रिप्स ने कहा था, "महात्मा गांधी की छवि कुछ धार्मिक हस्ती जैसी है इसलिए उनकी हमारी गिरफ़्त में मौत हमारे लिए एक बड़ी समस्या बन सकती है."चर्चिल का मतचर्चिल का मत इनसे अलग था.चर्चिल का मत था कि गांधी को क़ैद में ही रखा जाए और वो जो करना चाहें, करने दिया जाए.हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि अगर उन्हें इसलिए छोड़ा जा रहा है क्योंकि वो भूख हड़ताल पर बैठ जाएँगे तो उन्हें तुरंत छोड़ देना चाहिए.आख़िरकार 1944 में गांधी के ख़राब होते स्वास्थ्य को देखते हुए उन्हें छोड़ दिया गया क्योंकि ब्रितानी हुकूमत को डर था कि उनकी गिरफ़्त में गांधी की मौत एक संकट बन सकती थी हात्मा गांधी की 78 वर्ष की उम्र में 30 जनवरी 1948 को हत्या कर दी गई थी.

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