Monday 13 August 2007

पत्रकारों पर हमला : एकजुट होइए या फिर पिटते रहिए

बेहद शर्म की बात है पत्रकारों पर हमला। दरअसल निरंकुश होने की चाह वाली किसी भी सत्ता की आंख में सबसे पहले पत्रकार, लेखक और बुध्दिजीवी ही खटकता है। लोकतंत्र को यही त्रिवर्ग ही जिंदा रखे हुए है। इनमें से जनता की आवाज को सत्ता के गलियारों तक और सत्ता की पोल खोलकर जनता तक पहुंचाने की सबसे अहम कड़ी पत्रकार शासकीय अत्याचार का सबसे पहले निशाना बनता है। यही वह आवाज है जो दबा दी जाए तो शासकीय मनमानी को खुली छूट मिल जाती है। यही वजह रही है कि पत्रकारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीनने की कई बार कोशिश भी की जा चुकी है। पत्रकारों को मारा-पीटा जाता है या फिर हमेशा के लिए उसकी आवाज दबा दी जाती है। खुद को लोकतांत्रिक होने का दंभ भरने वाली सरकारें आखिर सत्ता और जनता के बीच पारदर्शिता लाने की अहम भूमिका निभाने वाले पत्रकारों, लेखकों व बुध्दिजीवियों को क्यों बर्दाश्त नहीं कर पाती हैं ? अगर यह सच है कि सरकारें और पत्रकारों के साथ का त्रिवर्ग सभी देश और अवाम की प्रगति व खुशहाली चाहते हैं तो आपस में यह खूनी टकराहट क्यों है ? यह ऐसा सवाल है जिसपर भारत के चौथे स्तंभ को गंभीरता से विचार करना चाहिए।
शायद हम खुद इस मुद्दे पर एकजुट नहीं हैं। अगर ऐसा है तो फिर वह दिन भी दूर नहीं जब कोई निरंकुश सत्ता पत्रकारों से उनकी अभिव्यक्ति की वह स्वतंत्रता भी छीन लेगी जो उसे हमेशा खटकती रहती है। कानपुर की ताजा घटना भी थोड़े दिन में ठंडी पड़ जाएगी। हो सकता है मायावती सरकार भी कोई लीपापोती करके पत्रकारों का गुस्सा शांत कर दे। पर क्या यह सथाई समाधान होगा ? शायद नहीं। तो फिर मित्रों अब पूरे देशभर के पत्रकारों को पार्टियों का कारिंदा बनना छोड़कर एकजुट होना पड़ेगा। इतनी ईमानदारी है हममें ? क्या यह संभव है ? अगर नहीं तो पिटते रहिए इसी तरह। जानें भी गंवाते रहिए। ईश्वर आपका भला करे।

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