Friday 2 November 2007

वोट मांगना मतलब देश चलाने का जाब !




चुनाव जीतकर संसद या विधानसभा पहुंचने वाले नेता ही शासन की बागडोर संभालते हैं और इनके ही हाथों में होता है देश के करोड़ों लोगों का भविष्य। भारत समेत पूरी दुनियां में इसी तरह से जनप्रतिनिधि सत्ता संभालते है। सवाल यह उठता है कि क्या चुनाव जीतना ही ऐसी योग्यता की कसौटी है जिसे देश चलाने की योग्यता माना जा सकता है। यह सवाल उन कुछ चुनाव जीतने वालों पर नहीं उठाया जा सकता जो शिक्षित होने के साथ-साथ राजनीति का भी पर्याप्त अनुभव लेकर संसद या विधानसभा में पहुंचते हैं। या फिर जो किसी विचारधारा के चिंतक होने के साथ अपने देश के लोगों के लिए अपरिचित नहीं होते। उन्हें लोग किसी जनहित के आंदोलनों के कारण जानते हैं। मगर ऐसे कितने लोग हैं। अब जिस तरह से पार्टियों का प्रादुर्भाव हो रहा है उससे यह समझना मुश्किल हो गया है कि कौन देश को बेहतर भविष्य प्रदान कर सकेगा। क्या ये सारे लोग देश चलाने की योग्यता रखते हैं? कम से कम मैं तो यही कहूंगा कि इस कसौटी पर चुनाव जीतने वाले सारे नेता खरे नहीं उतरते।
यही सवाल उठाकर टाइम्स आफ इंडिया ने पूरे देश में मुहिम चलाकर उन लोगों को नेता बनने के लिए आमंत्रित किया था जो खुद को देश को बेहतर चला सकने की दक्षता रखते हैं। बहुत सारे लोग इस चुनौती को स्वीकार करके सामने आए। टाइम्स की इस मुहिम को जागरूकता के लिहाज से बेहतर प्रयास माना जा सकता है। मगर यह प्रयास इस मायने में अधूरा है क्यों कि आज की चुनावी राजनीति में पैसे और खून-खराबे का जो नंगा नांच खेला जा रहा है, जिस तरह से गली मुहल्ले के गुंडे बाहुबल पर मंत्री पद हासिल कर ले रहे हैं, वैसी परिस्थिति में कोई पढ़ा लिखा और विचारवान व्यक्ति कैसे इनका मुकाबला कर पाएगा। बाहुबलियों के सामने तो इनका टिकना मुश्किल होगा। गुंडों के सामने ये चुनाव भी नहीं जीत पाएंगे। यह संवैधानिक व्यवस्था है कि देश चलाने की पहली योग्यता चुनाव जीतना है। और वह इनके वश का नहीं होता। ऐसे में फिलहाल जो देश का राजनीतिक परिदृश्य है उसपर जाति, धर्म, क्षेत्रीयता, बाहुबल, भ्रष्टाचार और अपराधी हावी हैं। तो टाइम्स के चुने गए नेता इन सारी बुराईयों का मुकाबला कैसे कर पाएँगे। संभवतः कभी नहीं। यहां यह चिंतनीय है कि जो देश को चलाने की योग्यता रखता है वह आज के परिदृश्य में चुनाव नहीं जीत सकता और जो चुनाव जीत सकता है वह देश चलाने की योग्यता नहीं रखता। सत्ता के लिए फितरत की राजनीति में इनकी ही सारी पैंतरेबाजी होती है। ऐसे ही नेता जनता को अपनी खेती समझते हैं। और राजनीति को धंधा। तभी तो देश को लूटने में इन्हें शर्म नहीं फक्र होता है।
यह भी कहा जाता है कि ऐसे धंधेबाज अगर काबिल नहीं हैं तो जनता उन्हें चुनती ही क्यों है? मगर इस जुमले का सच यह है कि अपराधियों के आगे निरीह जनता और क्या कर सकती है। यही नहीं जाति व क्षेत्रीयता की आड़ में जो जनादेश हासिल करके सरकारें बनतीं हैं वह अपने दायरे से बाहर कभी नहीं निकल पाती हैं। इसकी वजह यह है कि ये विकास के मुद्दे पर चुनाव नही जीतते। जातीय समीकरण इनकी जीत का कारण बनता है। शायद इसी लिए देश की बजाए ये अपने समुदाय के हितचिंतक बने रहते हैं। जो देश हित में कभी नहीं होता। सबसे बड़ी बात यह होती है किजातीय व आपराधिक समीकरणों से जीतकर आए ऐसे नेता देश चलाने के काबिल ही नहीं होते।
देश चलाने की काबिलियत पर टाटा अग्नि चाय का एक विग्यापन करारा चोट करता है। प्रसंगवश इसका जिक्र करना गलत नहीं होगा। इस विग्यापन में एक नेताजी साधिकार एक मतदाता के पास पहुंचते हैं और कहते हैं कि -मैं आपसे आपका वोट मांगने आया हूं। इस पर मतदाता कहता है कि आपकी योग्यता क्या है? इस सवाल की खिल्ली उड़ाने के अंदाज में नेताजी का शागिर्द कहता है कि पूरे २५ साल का तजुर्बा है नेताजी को। इस जवाब से मतदाता संतुष्ट नहीं होता और न ही नेताजी के दबदबे से विचलित होता है। पूछता है कि-आपके पास अनुभव क्या है? अनुभव के सवाल पर अब नेताजी बौखला जाते हैं क्यों कि पहली बार वोट के सवाल पर कोई मतदाता इतने सवाल करता दिखता है। उल्टे सवाल करते हैं कि उन्होंने क्या किसी जाब के लिए अप्लाई किया है? अविचल मतदाता तपाक से जवाब देता है-आपने देश चलाने का जाब अप्लाई किया है। इस जवाब पर वोट मांगने आए नेताजी और उनके शागिर्द दोनों झेंप जाते हैं। यह आखिरी संवाद बहुत ही प्रभावकारी तरीके से यह बताता है कि नेता बनना देश चलाने का जाब है। आप उसमें कहां फिट बैठते हैं। अगर आप इस काबिल हैं तो आप को वोट मांगने का अधिकार है अन्यथा देश के भविष्ये साथ खिलवाड़ मत करिए।
विडंबना यह है कि आज के माहौल में बस खिलवाड़ ही तो हो रहा है। अगर खिलवाड़ नहीं होता तो बिहार के अनंत सिंह जैसे जनप्रतिनिधि कैसे पैदा हो जाते। जिन्होंने सरेआम लोकतंत्र की खिल्ली उड़ाते हुए खबर के लिए चंद सवाल पूछने गए पत्रकारों को बांधकर पीटा। ऐसे नेता से क्या कोई मतदाता यह सवाल पूछ सकता है कि वोट के लिए आपकी काबिलियत क्या है ? उसकी यह मजाल कि अनंत जैसे नेता को वोट देने से मना कर दे। अनंत की मोकामा इलाके में समानांतर सत्ता है। इतना खौफ पैदा करने वाले अनंत अकेले जनप्रतिनिधि नहीं हैं। सभी दलों में ऐसे बाहुबली हैं जो कहलाने को विधायक या सांसद होते हैं मगर असल में वे अपराधी किस्म के लोग होते हैं। यानी जब राजनीति का अपराधीकरण इस कदर हो चुका हो कि मतदाता विवेक की बजाए खौफ के साए में वोट डाले तो कैसा लोकतंत्र और कैसे जनप्रतिनिधि? इनकी देश को चलाने की काबिलियत कैसे मानी जा सकती है? हां मतदाताओं को डराने धमकाने की काबिलियत अवश्य इनमें होती है। इस काबिलियत की पार्टियों को सत्ता हासिल में जरूरत पड़ती है मगर देश के लिए ये नेता नहीं नासूर हैं। देश चलाने की काबिलियत को उस पैमाने पर भी मापा जाना चाहिए जो मंत्री या मंत्रालय के कामकाज देखने में एक वरिष्ठ आईएस अधिकारी से की जाती है। एक आईएस को विभिन्न परीक्षाओं व प्रशिक्षणों से तपाकर निकाला जाता है। जब वह खरा सोना बन जाता है तभी अनुभवों और कामकाज के बेहतर रिकार्ड के आधार पर उसे जिम्मेदारी सौंपी जाती है। क्या जनप्रतिनिधि से ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती। नेता को भी कई परीक्षणों के दौर से गुजारना चाहिए। पार्टियों में नेतृत्व की क्षमता के आधार पर भर्ती की जानी चाहिए। निचले स्तर पर बेहतर शैक्षणिक रिकार्ड वाले ऐसे कार्यकर्ताओं को लिया जाना चाहिए जिनकी छवि साफ-सुथरी हो। इन्हें ही देश चलाने के लिए तैयार किया जाना चाहिए। मगर यह सब सभी पार्टियों की आचार संहिता में दफ्न हैं। हकीकत में पढ़ाई छोड़कर गुंडागर्दी करने वाले कालेज, विश्वविद्यालय या गली मुहल्लों के दादा को ही ज्यादातर नेता बनने का मौका हासिल होता है। अब बताईये कि एक तेज तर्रार छात्र जीवन गुजार चुका शख्स बेहतर होगा या ये गुंडे।
यह भी कहा जा सकता है कि बेहतर छात्र नेता की जगह डाक्टर, इंजीनियर या प्रशासनिक अधिकारी बनना पसंद करते हैं। मगर यह सही नहीं है। अगर राजनीति की डगर साफ-सुथरी अपराध मुक्त होती तो सभी अच्छे छात्र मंत्री बनना क्यों नहीं पसंद करते। मगर प्रखर छात्रों को नेता बनाने के लिए संरक्षण की जरूरत होगी। यह प्रयोग पार्टियां करती भी हैं। कई क्षेत्रों के विशेषग्यों को चुनाव जितवाकर लाती हैं और उन्हें वैसी जिम्मेदारी सौंपती हैं। लेकिन यह तो कृपा करने वाली बात हुई। ऐसे लोगों का जनाधार नहीं होता और न ही आम लोगों की व्यवहारिक समस्याओं का ग्यान होता है। नेता के तौर पर इनका व्यक्तित्व अधूरा होता है। इस प्रक्रिया को अपनाने की जगह पढ़े लिखे लोगों को बतौर पार्टी कार्यकर्ता प्रशिक्षित किया जाना शायद बेहतर होगा। और ऐसा तब होगा जब सभी पार्टियों को कानूनी दायरे में बांधकर ऐसा करने पर मजबूर किया जाए। इसे ठीक से लागू करने के लिए अपराध से नाता रखने वालों से नाता ईमानदारी से तोड़ना होगा। जनता इस मुद्दे पर दबाव डालने में महत्तवपूर्ण भूमिका निभा सकती है। जागरूकता और हिम्मत के साथ ऐसे किसी प्रतिनिधि का बहिष्कार करना होगा भले ही वह अपनी रुचि की ही पार्टी का क्यों न हो। तय करना होगा कि देश चलाने का जाब उसी को सौंपेंगे जो इसकी काबिलियत रखता है। क्या राजनीति को धंधा, जनता को खेती, भ्रष्टाचार व अपराध को सिध्दांत, गुंडागर्दी को अपनी योग्यता समझने वाले नेताओं को टाटा-बाय बाय करने को तैयार हैं आप? अगर नहीं तो आपको भी जनप्रतिनिधि चुनने और ऐसी सरकारों को कोसने का कोई अधिकार नहीं है। देश को चलाने वाले लोगों के नियोक्ता आप ही हैं। जागिए, वरना वतन को गिरवी रख आपको फिर गुलाम बना देंगे ये नाकाबिल नेता।

डा. मान्धाता सिंह
३७, मनुजेंद्र दत्त रोड, दमदम कैंट
कोलकाता-२८
फोन-०३३-२५२९२२५२

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