Friday 21 December 2007

स्मृति शेष-त्रिलोचन

कल 22 दिसंबर को त्रिलोचनजी के पैतृक गांव चिरानी पट्टी में उनके भतीजे अरुण सिंह और एसपी सिंह के आग्रह पर ब्रह्मभोज का आयोजन किया गया है। यह शायद आखिरी मौका होगा जब त्रिलोचन की आत्मिक शांति के लिए उनके पैतृक गांव में कोई आयोजन होने जा रहा है। जीवनभर त्रिलोचनजी घुमक्कड़ बने रहे। अपने पैतृक गांव या परिवार के लिए उनके न पांव थमे और न ही उन्होंने किसी सामाजिक बंधनों की परवाह की। अब किसी किस्म की सामाजिक रस्म का निर्वाह गांव के पारिवारिक लोगों की इच्छा ही मानी जा सकती है क्यों कि खुद त्रिलोचन तो जीवन इन सारे व्यामोह से मुक्त रहे। शायद गांव वालों और अपने चचेरे भाई अरुण सिंह के आग्रह को त्रिलोचनजी के बेटे अमित प्रकाश सिंह नहीं टाल पाए। वे भी 22 दिसंबर को त्रिलोचनजी की तेरही के मौके पर चिरानीपट्टी के लिए रवाना हो गए हैं। इस आखिरी रस्म के मौके पर उनकी स्मृति में आइए यह भी जान लें कि कैसे थे त्रिलोचन।

स्मृति शेष- इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौड़ा..
पहली ही मुलाकात में त्रिलोचन शास्त्री से जैसी आत्मीयता हुई, उसे मैं कभी भूल नहीं सकता। कवि त्रिलोचन को तो मैं बहुत पहले से जानता था और उनकी रचनाधर्मिता का मैं कायल भी था, लेकिन व्यक्ति त्रिलोचन से मेरी मुलाकात 1991 में हुई। उनकी सहजता और विद्वत्ता ने मुझे जिस तरह प्रभावित किया, उसने उनके कवि के प्रति मेरे मन में सम्मान और बढ़ा दिया। ऐसे रचनाकार अब कहां दिखते है, जो लेखन और व्यवहार दोनों में एक जैसे ही हों! पर त्रिलोचन में यह बात थी और व्यक्तित्व की यह सहजता ही उनके रचनाकार को और बड़ा बनाती है। अंग्रेजी का मुहावरा 'लार्जर दैन लाइफ' बिलकुल सकारात्मक अर्थ में उन पर लागू होता है।

अंग्रेजी का और नकारात्मक अर्थो में इस्तेमाल किए जाने के बावजूद इस मुहावरे का सकारात्मक प्रयोग करते हुए संकोच मुझे दो कारणों से नहीं हो रहा है। पहला तो यह हिंदी के प्रति पूरी तरह समर्पित होते हुए भी त्रिलोचन को अंग्रेजी से कोई गुरेज नहीं था। अंग्रेजी का छंद सॉनेट हिंदी में त्रिलोचन का पर्याय बन गया, इससे बड़ा प्रमाण इसके लिए और क्या चाहिए? दूसरा यह कि शब्दों के साथ खेलना मैंने त्रिलोचन से ही सीखा। वह कैसे किसी शब्द को उसके रूढ़ अर्थ के तंग दायरे से निकाल कर एकदम नए अर्थ में सामने प्रस्तुत कर दें, इसका अंदाजा कोई लगा नहीं सकता था। भाषा और भाव पर उनका जैसा अधिकार था उसकी वजह उनकी सहजता और अपनी सोच के प्रति निष्ठा ही थी।

अपने छोटों के प्रति सहज स्नेह का जो निर्झर उनके व्यक्तित्व से निरंतर झरता था, वह किसी को भी भिगो देने के लिए काफी था। लेकिन मेरी और उनकी आत्मीयता का एक और कारण था। वह था सॉनेट। वैसे हिंदी में सॉनेट छंद का प्रयोग करने वाले त्रिलोचन कोई अकेले कवि नहीं है। उनके पहले जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महाप्राण निराला भी इस छंद का प्रयोग कर चुके थे। उनके बाद जयप्रकाश बागी ने इसका प्रयोग किया। हो सकता है कि इसका प्रयोग कुछ और कवियों ने भी किया हो, पर इटैलियन मूल के इस छंद को आज हिंदी में सिर्फ त्रिलोचन के नाते ही जाना जाता है। ऐसे ही जैसे इटली में बारहवीं शताब्दी में शुरू हुए इस छंद को चौदहवीं सदी के कवि पेट्रार्क के नाते जाना जाता है।

ऐसा शायद इसलिए है कि पेट्रार्क की तरह त्रिलोचन भी ताउम्र सफर में रहे। वैसे ही जैसे यह छंद इटैलियन से अंग्रेजी, अंग्रेजी से हिंदी और फिर रूसी, जर्मन, डच, कैनेडियन, ब्राजीलियन, फ्रेंच, पोलिश, पुर्तगी़ज, स्पैनिश, स्वीडिश .. और जाने कितनी ही भाषाओं के रथ की सवारी करता दुनिया भर के सफर में है। चौदह पंक्तियों के इस छंद से त्रिलोचन का बहुत गहरा लगाव था और यह अकारण नहीं था। कारण उन्होंने मुझे पहली ही मुलाकात में बताया था, 'देखिए, यह छंद जल्दी सधता नहीं है, लेकिन जब सध जाता है तो बहता है और बहा ले जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें आप जो कहना चाहते है, वही कहते है और पढ़ने या सुनने वाला ठीक-ठीक वही समझता भी है।' मतलब यह कि दो अर्थो के चमत्कार पैदा करने के कायल अलंकारप्रेमी कवियों के लिए यह छंद मुफीद नहीं है। ठीक-ठीक वही अर्थ कोई कैसे ग्रहण करता है? इस सवाल पर शास्त्री जी का जवाब था, 'हिंदी में बहुत लोगों को भ्रम है कि शब्दों के पंक्चुएशन से अर्थ केवल अंग्रेजी में बदलता है। हिंदी में क्रिया-संज्ञा को इधर-उधर कर देने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। वास्तव में ऐसा है नहीं। हिंदी में तो केवल बलाघात से, बोलने के टोन से ही वाक्यों के अर्थ बदल जाते है। फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि यहां शब्दों के पंक्चुएशन से अर्थ न बदले?'

त्रिलोचन की कोशिश यह थी कि वह जो कहे वही समझा जाए। यही वजह है जो-

इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौड़ा

सॉनेट सॉनेट सॉनेट सॉनेट क्या कर डाला

यह उसने भी अजब तमाशा। मन की माला

गले डाल ली। इस सॉनेट का रस्ता चौड़ा

अधिक नहीं है, कसे कसाए भाव अनूठे

ऐसे आयें जैसे किला आगरा में जो

नग है, दिखलाता है पूरे ताजमहल को।

गेय रहे एकान्वित हो। ..

और इसे आप नॉर्सिसिज्म नहीं कह सकते है। वह इस विधा में अपने अवदान को लेकर किसी खुशफहमी में नहीं है। साफ कहते है-

उसने तो झूठे

ठाट-बाट बांधे है। चीज किराए की है।

फिर चीज है किसकी, यह जानने कहीं और नहीं जाना है।

अगली ही पंक्ति में वह अपने पूर्ववर्तियों को पूरे सम्मान के साथ याद करते है-

स्पेंसर, सिडनी, शेक्सपियर, मिल्टन की वाणी

वर्डस्वर्थ, कीट्स की अनवरत प्रिय कल्याणी

स्वरधारा है। उसने नई चीज क्या दी है!

ऐसा भी नहीं है कि वह आत्मश्लाघा से मुक्त है तो आत्मबोध से भी मुक्त हों। अपने रचनात्मक अवदान के प्रति भी वह पूरी तरह सजग है और यह बात वह पूरी विनम्रता से कहते भी हैं-

सॉनेट से मजाक भी उसने खूब किया है,

जहां तहां कुछ रंग व्यंग का छिड़क दिया है।


कविता की भाषा के साथ भी जो प्रयोग उन्होंने किया, वह बहुत सचेत ढंग से किया है। गद्य के व्याकरण में उन्होंने कविता लिखी, जिसमें लय उत्पन्न करना छंदमुक्त नई कविता लिखने वालों के लिए भी बहुत मुश्किल है। लेकिन त्रिलोचन छंद और व्याकरण के अनुशासन में भी लय का जो प्रवाह देते है, वह दुर्लभ है। शायद यह वही 'अर्थ की लय' है जिसके लिए अज्ञेय जी आह्वान किया करते थे।

यह अलग बात है कि आज हम उन्हे एक छंद सॉनेट के लिए याद कर रहे है, पर कविता उनके लिए छंद-अलंकार का चमत्कार पैदा करने वाली मशीन नहीं है। कविता उनके लिए लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का माध्यम है। ठीक-ठीक वही बात जो वह सोचते है। वह अपने समय और समाज के प्रति पूरे सचेत है-

देख रहा हूं व्यक्ति, समाज, राष्ट्र की घातें

एक दूसरे पर कठोरता, थोथी बातें

संधि शांति की।..

वह यह भी जानते है जो संघर्ष वह कर रहे है वह उनकी पीढ़ी में पूरा होने वाला नहीं है। इसमें कई पीढि़यां खपेंगी, फिर उनके सपनों का समाज बन पाएगा। कहते है-

धर्म विनिर्मित अंधकार से लड़ते लड़ते

आगामी मनुष्य; तुम तक मेरे स्वर बढ़ते।

हंस के समान दिन उड़ कर चला गया

हंस के समान दिन उड़ कर चला गया

अभी उड़ कर चला गया

पृथ्वी आकाश

डूबे स्वर्ण की तरंगों में

गूंजे स्वर

ध्यान-हरण मन की उमंगों में

बंदी कर मन को वह खग चला गया

अभी उड़ कर चला गया

कोयल सी श्यामा सी

रात निविड़ मौन पास

आयी जैसे बँध कर

बिखर रहा शिशिर-श्वास

प्रिय संगी मन का वह खग चला गया

अभी उड़ कर चला गया


(यह श्रद्धांजलि याहू इंडिया से साभार । लेख इष्ट देव सांकृत्यायन ने लिखा है।)

1 comment:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

अरे भाई मान्धाता जी
इसमें काम से काम मेरा नाम तो दे दिया होता. मेरा यह लेख आज ही दैनिक जागरण में छपा है और याहू इंडिया को भी वहीं से मिला है.

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