Monday 25 August 2008

वोट और सत्ता के चक्रव्यूह में फँसी हिंदी

दुनियां में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में हिंदी तीसरे नंबर पर है मगर भारत में ही उसकी दुर्दशा किसी से छुपी नहीं है। राजभाषा होने के कारण इसके नाम पर सरकारी अनुदानों और बजट की लूटखसोट तो खूब होती मगर विकास का ग्राफ निरंतर नीचे ही गिरता जा रहा है। हिंदी दिवस मनाकर हिंदी में काम करने के लच्छेदार भाषण दिए जाते हैं। हिंदी अधिकारी, जिन्हें अधिकार के साथ हिंदी के साथ नाइंसाफी करने का लाइसेंस मिला है, ही इतने सचेत नहीं हैं कि हिंदी का कल्याण हो सके। कुछ अड़चनों का रोना रोकर अपनी जिम्मेदारी निभाने की बात समझा दी जाती है।

अंग्रेजी माध्यम से बच्चों को पढ़ाना शौक और शान है। अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी ही क्या किसी अन्य भारतीय भाषा में पढ़ने वाले बच्चे दोयम समझे जाते हैं। अभी कुछ दिन पहले बनारस के पास अपने गांव मैं गया था। पता चला कि वहां तमाम कानवेंट स्कूल खुल गए हैं। गांव का सरकारी प्राइमरी स्कूल, जिसमें खांटी हिंदी में पढ़ाई होती, अब वीरान सा दिखता है। लोगों का तर्क है कि आगे जाकर नौकरी तो अंग्रेजी पढ़नेवालों को मिलती है तो फि हम हिंदी में ही पढ़कर क्या करेंगे। यह चिंताजनक है और देश की शिक्षा व्यवस्था की गंभीर खामी भी है।जब गोजगार हासिल करने की बुनियादी जरूरतों में परिवर्तन हो रहा है तो बेसिक शिक्षा प्रणाली में भी वही परिवर्तन कब लाए जाएंगे। सही यह है कि वोट के चक्रव्यूह में फंसी भारतीय राजनीति हिंदी को न तो छोड़ पा रही है नही पूरी तरह से आत्मसात ही कर पा रही है।

इसी राजनीतिक पैंतरेबाजी के कारण तो हिंदी पूरी तरह से अभी भी पूरे देश की संपर्क भाषा नहीं बन पाई है। अब वैश्वीकरण की आंधी में अंग्रेजी ही शिक्षा व बोलचाल का भाषा बन गई है। हिदी जैसा संकट दूसरी हिंदी भाषाओं के सामने भी मुंह बाए खड़ा है मगर अहिंदी क्षेत्रों में अपनी भाषा के प्रति क्षेत्रीय राजनीति के कारण थोड़ी जागरूकता है। तभी तो पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में अंग्रेजी को प्राथमिक शिक्षा में तरजीह दी जाने लगी है। दक्षिण के राज्य तो इसमें सबसे आगे हैं। कुल मिलाकर हिंदी हासिए पर जा रही है।

अब तो हिंदी की और भी शामत आने वाली है। नामवर सिंह जैसे हिंदी के नामचीन साहित्यकार तक स्थानीय बोलियों में शिक्षा की वकालत करने लगे हैं। ( देखिए संलग्न पीडीएफ- रजनी सिसोदिया का २७ जुलाई को जनसत्ता में छपा लेख -- जब माझी नाव डुबोए ) अगर सचमुच ऐसा हो जाता है तो सोचिये कि जिन राज्यों में अब तक हिंदी ही प्रमुख भाषा थी वहीं से भी उसे बेदखल होना पड़ेगा। यह हिंदी का उज्ज्वल भविष्य देखने वालों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। अगर यही हाल रहा तो आंकड़ों में हिंदी कब तक पूरी दुनिया में दूलरे नंबर की सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा रह जाएगी। क्या रोजी रोटी भी दे सकेगी हिंदी ? सरकारी ठेके पर कब तलक चलेगी हिंदी ? देश की अनिवार्य संपर्क व शिक्षा की भाषा कब बनपाएगी हिंदी। आ रहा है हिंदी दिवस मनाने का दिन। आप भी हिंदी के इन ठेकेदारों से यही सवाल पूछिए।

विश्व की दस प्रमुख भाषाएं

१- चीनी लोगों की भाषा मंदरीन को बोलने वाले एक बिलियन लोग हैं। मंदरीन बहुत कठिन भाषा है। किसी शब्द का उच्चारण चार तरह से किया जाता है। शुरू में एक से दूसरे उच्चारण में विभेद करना मुश्किल होता है। मगर एक बिलियन लोग आसानी से मंदरीन का उपयोग करते हैं। मंदरीन में हलो को नि हाओ कहा जाता है। यह शब्द आसानी से लिख दिया मगर उच्चारण तो सीखना पड़ेगा।
२-अंग्रेजी बोलने वाले पूरी दुनिया में ५०८ मिलियन हैं और यह विश्व की दूसरे नंबर की भाषा है। दुनिया की सबसे लोकप्रिय भाषा भी अंग्रेजी ही है। मूलतः यह अमेरिका आस्ट्रेलिया, इग्लैंड, जिम्बाब्वे, कैरेबियन, हांगकांग, दक्षिण अफ्रीका और कनाडा में बोली जाती है। हलो अंग्रेजी का ही शब्द है।
३- भारत की राजभाषा हिंदी को बोलने वाले पूरी दुनियां में ४९७ मिलियन हैं। इनमें कई बोलियां भी हैं जो हिंदी ही हैं। ऐसा माना जा रहा है कि बढ़ती आबादी के हिसाब से भारत कभी चीन को पछाड़ सकता है। इस हालत में नंबर एक पर काबिज चीनी भाषा मंदरीन को हिंदी पीछे छोड़ देगी। फिलहाल हिंदी अभी विश्व की तीसरे नंबर की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। हिंदी में हलो को नमस्ते कहते है।
४- स्पेनी भाषा बोलने वालों की तादाद ३९२ मिलियन है। यह दक्षिणी अमेरिकी और मध्य अमेरिकी देशों के अलावा स्पेन और क्यूबा वगैरह में बोली जाती है। अंग्रेजी के तमाम शब्द मसलन टारनाडो, बोनान्जा वगैरह स्पेनी भाषा ले लिए गए हैं। स्पेनी में हलो को होला कहते हैं।
५- रूसी बोलने वाले दुनियाभर में २७७ मिलियन हैं। और यह दुनियां की पांचवें नंबर की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। संयुक्तराष्ट्र की मान्यता प्राप्त छह भाषाओं में से एक है। यह रूस के अलावा बेलारूस, कजाकस्तान वगैरह में बोली जाती है। रूसी में हलो को जेद्रावस्तूवूइते कहा जाता है।
६-दुनिया की पुरानी भाषाओं में से एक अरबी भाषा बोलने वाले २४६ मिलियन लोग हैं। सऊदू अरब, कुवैत, इराक, सीरिया, जार्डन, लेबनान, मिस्र में इसके बोलने वाले हैं। इसके अलावा मुसलमानों के धार्मिक ग्रन्थ कुरान की भाणा होने के कारण दूसरे देशों में भी अरबी बोली और समझी जाती है। १९७४ में संयुक्त राष्ट्र ने भी अरबी को मान्यता प्रदान कर दी। अरबी में हलो को अलसलामवालेकुम कहा जाता है।
७- पूरी दुनिया में २११ मिलियन लोग बांग्ला भाषा बोलते हैं। यह दुनिया की सातवें नंबर की भाषा है। इनमें से १२० मिलियन लोग तो बांग्लादेश में ही रहते है। चारो तरफ से भारत से घिरा हुआ है बांग्लादेश । बांग्ला बोलने वालों की बाकी जमात भारत के पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा व पूर्वी भारत के असम वगैरह में भी है। बांग्ला में हलो को एईजे कहा जाता है।
८- १२वीं शताब्दी बहुत कम लोगों के बीच बोली जानेवाली भाषा पुर्तगीज आज १९१ मिलियन लोगों की दुनिया का आठवें नंबर की भाषा है। स्पेन से आजाद होने के बाद पुर्तगाल ने पूरी दुनिया में अपने उपनिवेशों का विस्तार किया। वास्कोडिगामा से आप भी परिचित होंगे जिसने भारत की खोज की। फिलहाल ब्राजील, मकाउ, अंगोला, वेनेजुएला और मोजांबिक में इस भाषा के बोलने वाले ज्यादा है। पुर्तगीज में हलो को बोमदिया कहते हैं।
९- मलय-इंडोनेशियन दुनिया की नौंवें नंबर की भाषा है। दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी के लिहाज से मलेशिया का छठां नंबर है। मलय-इंडोनेशियिन मलेशिया और इंडोनेशिया दोनों में बोली जाती है। १३००० द्वीपों में अवस्थित मलेशिया और इन्डोनेशिया की भाषा एक ही मूल भाषा से विकसित हुई है। इंडोनेशियन में हलो को सेलामतपागी कहा जाता है।
१०- फ्रेंच यानी फ्रांसीसी १२९ मिलियन लोग बोलते हैं। इस लिहाज से यह दुनियां में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में दसवें नंबर पर है। यह फ्रांस के अलावा बेल्जियम, कनाडा, रवांडा, कैमरून और हैती में बोली जाती है। फ्रेंच में हलो को बोनजूर कहते हैं।

वादा आज तक पूरा नहीं हो पाया
"संविधान के अनुसार २६ जनवरी १९६५ से भारतीय संघ की राजभाषा देव नागरी लिपि में हिन्दी हो गई है और सरकारी कामकाज के लिए हिन्दी अंतरराष्टीय अंकों का प्रयोग होगा |" इस देश के संविधान ने इस देश की आत्मा अर्थात "हिन्दी" से एक वादा किया था और वह आज तक पूरा नहीं हो पाया और हिन्दी अपने इस अधिकार के लिए आज तक संविधान के सामने अपने हाथ फैला ये आंसू बहा रही है | क्या वास्तव में हिन्दी इतनी बुरी है कि हम उसे अपनाना नहीं चाहते ? ( विजयराज चौहान (गजब) chauhan.vijayraj@gmail.com के प्रकाशित उपन्यास "भारत/INDIA" के पेज १५६-१५८ ( http://hindibharat.wordpress.com/2008/08/10/11/ )
पर उपन्यास के पात्र इसी तरह से चिंता जाहिर करते हैं। मुख्य पात्र भारत द्वारा गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर स्कूल समारोह में हिंदी के संदर्भ में ये बातें कही जातीं है।

आगे इस उपन्यास के पात्र यह भी कहते हैं कि---
नहीं वह इतनी बुरी चीज नहीं है | वह इस दुनिया कि सबसे अधिक बोली जाने वाली तीसरे नम्बर कि भाषा है। इसकी महत्ता को भारत के अनेक महापुरुषों ने भी स्वीकार किया है।

इसकी इस महत्ता को देखकर ही एक ऐसे व्यक्ति "अमीर खुसरो" जिसकी मूल भाषा अरबी ,फारसी और उर्दू थी उसने कहा था ---

"मैं हिन्दुस्तान कि तूती हूँ ,यदि तुम वास्तव में मुझे जानना चाहते हो हिन्दवी(हिन्दी) में पूछो में तुम्हें अनुपम बातें बता सकता हूँ "

हिन्दी का महत्व समझते हुए ही उर्दू के एक शायर मुहम्मद इकबाल ने बड़े गर्व से कहा था कि --

"हिन्दी है हम वतन है हिन्दोंस्ता हमारा |"

हिन्दी के इसी महत्व को जान कर भारत के एक युगपुरूष महर्षि दया-नंद सरस्वती जिनकी मूल भाषा गुजराती थी, ने कहा था ---

"हिन्दी के द्वारा ही भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है। "

लौह पुरुष सरदार वल्बभाई पटेल ने और आजादी के बाद कहा था ---

"हिन्दी अब सारे राष्ट्र की भाषा बन गई है इसके अध्ययन एवं इसे सर्वोतम बनाने में हमें गर्व होना चाहिए |"

गुरुदेव रविन्द्रनाथ ठाकुर ने जिनकी मूल भाषा बांग्ला थी | उन्होंने कहा था कि ---

"यदि हम प्रत्येक भारतीय नैसर्गिक अधिकारों के सिद्धांत को स्वीकार करते है तो हमें राष्ट्र भाषा के रूप में उस भाषा को स्वीकार करना चाहिए जो देश में सबसे बड़े भूभाग में बोली जाती है और वों भाषा हिन्दी है |"

नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने और कहा था कि ---

"हिन्दी के विरोध का कोई भी आन्दोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है |"

तस्वीर का दूसरा पहलू
आज हिंदी देश को जोड़ने की बजाए विरोध की भाषा बन गई है। राजनीति ने इसे उस मुकाम पर खड़ा कर दिया है जहां अहिंदी क्षेत्रों में हिंदी विरोध पर ही पूरी राजनीति टिक रई है। पूरे भारत को एक भाषा से जोड़ने की आजाद भारत की कोशिश अब राजनीतिक विरोध के कारण कहने को त्रिभाषा फार्मूले में तब्दील हो गई है मगर अप्रत्क्ष तौर पर सभी जगह हिंदी का विरोध ही दिखता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो यही है कि हिंदी राज्य स्तर पर हिंदी को सर्वमान्य का सम्मान नहीं मिल पाया है। जिस देश में प्राथमिक शिक्षा तक का भी राछ्ट्रीयकरण सिर्फ हिंदी को अपनाने के विरोध के कारण नहीं हो पाया तो उस देश की एकता का सूत्र कैसे बन सकती है हिंदी। अब वैश्वीकरण के दौर में कम से कम शिक्षा के स्तर पर अंग्रेजी ज्यादा कामयाब होती दिख रही है। कानून हिंदी को सब दर्जा हासिल है मगर व्यवहारिक स्तर पर सिर्फ उपेक्षा ही हिंदी के हाथ लगी है। क्षेत्रीय राजनीति का बोलबाला होने के बाद से तो बोलचाल व शिक्षा सभी के स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं को मिली तरजीह ने एक राष्ट्र-एक भाषा की योजना को धूल में मिला दिया है। अगर हिंदी को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में अपनाया नहीं गया तो निश्चित तौर पर इसकी जगह अंग्रेजी ले लेगी और तब क्षेत्रीय भाषाओँ के भी वजूद का संकट खड़ा हो जाएगा। अगर हिंदी बचती है तो क्षेत्रीय भाषाओं का भी वजूद बच पाएगा अन्यथा अंग्रेजी इन सभी को निगल जाएगी। और अंग्रेजी ने तो अब शिक्षा और रोजगार के जरिए यह करना शुरू भी कर दिया है।

1 comment:

अनुनाद सिंह said...

सभी भाषाओं के इतिहास में ऐसे काल आते हैं| अभी बहुत दिन नहीं हुए जब ब्रिटेन के राजघराने फ्रेंच बोलने में अपनी शान मानते थे। बहुत दिन नहीं हुए जब न्यूटन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "प्रिन्सिपिया मैथेमैटिका" को अंग्रेजी के बजाय लैटिन में लिखना श्रेयस्कर समझा था।

कुछ भी हो हिन्दी भी अब जन-जन की भाषा बन गयी है, वो भी अपने खुद के दम पर। सरकारी बैशाखी के सहारे नहीं। हिन्दी और भारतीय भाषाओं के दिन फिरेंगे। और आप जैसे चिन्तकों के होते हुए निराश होने का पर्याप्त कारण नहीं है।

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