Sunday 27 September 2015

चले जाने के बाद भी लोक में रहता है मनुष्य, श्राद्ध में 54 बातें रखें ध्यान

चले जाने के बाद भी लोक में रहता है मनुष्य
कोई भी मनुष्य जब अपने पूर्वजों का श्राद्ध करता है, तब किसका श्राद्ध करता है, किस चीज का श्राद्ध करता है? क्या वह आत्मा का श्राद्ध करता है? नहीं। आत्मा सर्वव्यापी अर्थात् विभु है। उसके लिए मरण नहीं है, स्थानांतर अथवा लोकांतर नहीं है। इसलिए आत्मा के श्राद्ध का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

तब क्या मनुष्य देह का श्राद्ध करता है? नहीं, देह का भी नहीं। देह की तो राख या मिट्टी हो जाती है। कदाचित् देह अन्य प्राणियों का आहार बन कर उनके साथ एकरूप भी हो गई हो। मृत देह को खाने वालों सियारों, भेडि़यों या गिद्धों का हम श्राद्ध नहीं करते। अथवा संभव हो कि देह में कीड़े पड़ गए हों और उनका ही एक बड़ा देश बस गया हो; लेकिन उनकी तृप्ति के लिए भी हम तर्पण नहीं करते अथवा पिंड नहीं रखते।

अब बाकी बचता है मरने वाले मनुष्य की वासनाओं का समुच्चय अथवा पीछे रहने वाले लोगों के मन में रही मृतक-संबंधी भावनाओं का समुच्चय। जिन दो वासनात्मक और भावनात्मक देहों द्वारा मनुष्य मृत्यु के बाद शेष रहता है, इन दो में से एक देह का अथवा दोनों देहों का श्राद्ध संभव तो है।

लोक-कल्पना यह है कि मरा हुआ पूर्वज महाशूर, क्रूर, पेटू या आलसी हो तो उसका वासना समुच्चय अथवा लिंग-शरीर बाघ या भेडि़ए के शरीर में जन्म लेता है। यदि वह मिलनसार न होगा तो बाघ की योनि प्राप्त करेगा। समान शील वालों का संघ बनाने की वृत्ति वाला होगा तो भेडि़ए की योनि उसके लिए अधिक अनुकूल सिद्ध होगी। परंतु श्राद्ध इन बाघों या भेडि़यों का नहीं होता।

ऐसा हो, तब तो उनके नाम पर खीर और लड्डू अर्पण करने के लिए किसी वेद-शास्त्र-संपन्न ब्राह्मण को बुलाने पर यह तमाशा हो सकता है कि हमारे पूर्वज खीर और लड्डू के बदले उसी ब्राह्मण को ही पसंद करें और चट कर जाएं; और श्राद्ध में एक समय जो पशु हत्या होती थी, उसके बदले ब्रह्महत्या हो जाए!
(मानव-पिता मनु भगवान ने कहा है कि 'मां स भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसं इहाद्म्यहम् इति मांसस्य मांसत्वम्'- जिसका मांस यहां मैं खाता हूं, व (स:) मुझे (मां) परलोक में खाएगा। इसलिए मांस को मांस कहते हैं। इस न्याय से यदि हम श्राद्ध का विचार करें तो कहना होगा कि दुनिया में सब जगह श्राद्ध ही चल रहा है।)

पूर्वजों में कोई अपने कर्मों, वासनाओं और संस्कारों के अनुरूप किसी भी योनि में गया हो और वहां अपनी पुरानी वासनाओं की तृप्ति करते-करते नई वासनाओं का बंधन रचता हो तो उससे हमारा कोई वास्ता नहीं। हमारा कोई पूर्वज शरीर छोड़ कर चला गया हो तो भी इस लोक में उसका संपूर्ण नाश नहीं होता। उसके द्वारा किए गए अच्छे-बुरे कर्म, उसके द्वारा प्रेरित अच्छी-बुरी प्रवृत्तियां और उसके द्वारा मानव-स्वभाव के विकास में की गई वृद्धि- यह सब उसके चले जाने के बाद भी इस लोक में मौजूद रहता है।

उसके साथ जिनका संबंध था, उन सगे-संबंधी, शत्रु-मित्र आदि लोगों की स्मृति और भावना में वह पहले की तरह ही जीवित रहता है; इतना ही नहीं, उसके बाकी रहे स्मृतिगत  जीवन में दिन-प्रतिदिन परिवर्तन भी होते रहते हैं। मृत्यु के बाद उसका निवास एक ही शरीर में नहीं रहता; स्मृति के रूप में, कार्य के रूप में अथवा प्रेरणा के रूप में वह जितने समाज में व्याप्त होगा, उस समस्त समाज में उसका निवास होता है; और उसके इस जीवन को लक्ष्य में रख कर ही उसका श्राद्ध संभव हो सकता है। शिवाजी महाराज जैसे पुण्यश्लोक राजा ने मोक्ष प्राप्त किया हो या इस देश अथवा दूसरे देश में राष्ट्र-पुरुष का जन्म लिया हो; उनकी इस नई यात्रा- कैरियर- का हम श्राद्ध नहीं करते। आज हम उन शिवाजी महाराज का श्राद्ध करते हैं, जो हमारे हृदय में बस कर जीते हैं, वहां बड़े होते हैं- विभूति के रूप में बढ़ते हैं।
श्राद्ध मरे हुए जीवों का नहीं होता; परंतु देहत्याग करने के बाद उनका जो अंश समाज में जीवित रहता है, समाज के द्वारा प्रवृत्ति करता है, विकसित होता है और पुरुषार्थ करता है, उसी का श्राद्ध हो सकता है। यह मरणोत्तर सामाजिक जीवन ही सच्चा पारलौकिक जीवन है।

श्राद्ध में 54 बातें रखें ध्यान
  पितरों के प्रति श्रद्धा अर्पित करने का भाव ही श्राद्ध है। वैसे तो हर अमावस्या और पूर्णिमा को, पितरों के लिये श्राद्ध और तर्पण किया जाता है। लेकिन आश्विन शुक्ल पक्ष के 15 दिन, श्राद्ध के लिये विशेष माने गये हैं। इन 15 दिनों में अगर पितृ प्रसन्न रहते हैं, तो फिर, जीवन में, किसी चीज़ की कमी नहीं रहती। कई बार, ग़लत तरीके से किये गये श्राद्ध से, पितृ नाराज़ होकर शाप दे देते हैं। इसलिये श्राद्ध में इन 54 बातों का खास ध्यान रखना चाहिये।

श्राद्ध की मुख्य प्रक्रिया
-तर्पण में दूध, तिल, कुशा, पुष्प, गंध मिश्रित जल से पितरों को तृप्त किया जाता है।
-ब्राह्णणों को भोजन और पिण्ड दान से, पितरों को भोजन दिया जाता है।
-वस्त्रदान से पितरों तक वस्त्र पहुंचाया जाता है।
-यज्ञ की पत्नी दक्षिणा है। श्राद्ध का फल, दक्षिणा देने पर ही मिलता है। 

श्राद्ध के लिये कौन सा पहर श्रेष्ठ?
-श्राद्ध के लिये दोपहर का कुतुप और रौहिण मुहूर्त श्रेष्ठ है।
-कुतुप मुहूर्त दोपहर 11:36AM से 12:24PM तक।
-रौहिण मुहूर्त दोपहर 12:24PM से दिन में 1:15PM तक।
-कुतप काल में किये गये दान का अक्षय फल मिलता है।
-पूर्वजों का तर्पण, हर पूर्णिमा और अमावस्या पर करें।

श्राद्ध में जल से तर्पण ज़रूरी क्यों?
-श्राद्ध के 15 दिनों में, कम से कम जल से तर्पण ज़रूर करें। 
-चंद्रलोक के ऊपर और सूर्यलोक के पास पितृलोक होने से, वहां पानी की कमी है।
-जल के तर्पण से, पितरों की प्यास बुझती है वरना पितृ प्यासे रहते हैं।

श्राद्ध के लिये योग्य कौन?
-पिता का श्राद्ध पुत्र करता है। पुत्र के न होने पर, पत्नी को श्राद्ध करना चाहिये।
-पत्नी न होने पर, सगा भाई श्राद्ध कर सकता है।
-एक से ज्य़ादा पुत्र होने पर, बड़े पुत्र को श्राद्ध करना चाहिये। 

श्राद्ध कब न करें?
- कभी भी रात में श्राद्ध न करें, क्योंकि रात्रि राक्षसी का समय है।
- दोनों संध्याओं के समय भी श्राद्धकर्म नहीं किया जाता है।

श्राद्ध का भोजन कैसा हो?
-जौ, मटर और सरसों का उपयोग श्रेष्ठ है।
-ज़्य़ादा पकवान पितरों की पसंद के होने चाहिये।
-गंगाजल, दूध, शहद, कुश और तिल सबसे ज्यादा ज़रूरी है।
-तिल ज़्यादा होने से उसका फल अक्षय होता है।
-तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं।

श्राद्ध के भोजन में क्या न पकायें?
-चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा
-कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी
-बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी
-खराब अन्न, फल और मेवे

 ब्राह्णणों का आसन कैसा हो?
-रेशमी, ऊनी, लकड़ी, कुश जैसे आसन पर भी बिठायें।
-लोहे के आसन पर ब्राह्मणों को कभी न बिठायें।

ब्राह्णण भोजन का बर्तन कैसा हो?
-सोने, चांदी, कांसे और तांबे के बर्तन भोजन के लिये सर्वोत्तम हैं।
-चांदी के बर्तन में तर्पण करने से राक्षसों का नाश होता है।
-पितृ, चांदी के बर्तन से किये तर्पण से तृप्त होते हैं।
-चांदी के बर्तन में भोजन कराने से पुण्य अक्षय होता है।
-श्राद्ध और तर्पण में लोहे और स्टील के बर्तन का प्रयोग न करें।
-केले के पत्ते पर श्राद्ध का भोजन नहीं कराना चाहिये।

ब्राह्णणों को भोजन कैसे करायें?
-श्राद्ध तिथि पर भोजन के लिये, ब्राह्मणों को पहले से आमंत्रित करें।
-दक्षिण दिशा में बिठायें, क्योंकि दक्षिण में पितरों का वास होता है।
-हाथ में जल, अक्षत, फूल और तिल लेकर संकल्प करायें।
-कुत्ते,गाय,कौए,चींटी और देवता को भोजन कराने के बाद, ब्राह्मणों को भोजन करायें।
-भोजन दोनों हाथों से परोसें, एक हाथ से परोसा भोजन, राक्षस छीन लेते हैं।
-बिना ब्राह्मण भोज के, पितृ भोजन नहीं करते और शाप देकर लौट जाते हैं।
-ब्राह्मणों को तिलक लगाकर कपड़े, अनाज और दक्षिणा देकर आशीर्वाद लें।
-भोजन कराने के बाद, ब्राह्मणों को द्वार तक छोड़ें।
-ब्राह्मणों के साथ पितरों की भी विदाई होती हैं।
-ब्राह्मण भोजन के बाद , स्वयं और रिश्तेदारों को भोजन करायें।
-श्राद्ध में कोई भिक्षा मांगे, तो आदर से उसे भोजन करायें।
-बहन, दामाद, और भानजे को भोजन कराये बिना, पितर भोजन नहीं करते।
-कुत्ते और कौए का भोजन, कुत्ते और कौए को ही खिलायें।
-देवता और चींटी का भोजन गाय को खिला सकते हैं।

कहां श्राद्ध करना चाहिये?
-दूसरे के घर रहकर श्राद्ध न करें। मज़बूरी हो तो किराया देकर निवास करें।
-वन, पर्वत, पुण्यतीर्थ और मंदिर दूसरे की भूमि नहीं इसलिये यहां श्राद्ध करें।
-श्राद्ध में कुशा के प्रयोग से, श्राद्ध राक्षसों की दृष्टि से बच जाता है।
-तुलसी चढ़ाकर पिंड की पूजा करने से पितृ प्रलयकाल तक प्रसन्न रहते हैं।
-तुलसी चढ़ाने से पितृ, गरूड़ पर सवार होकर विष्णु लोक चले जाते हैं।

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